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७.१,७०२] विविध पत्र आदि संग्रह-३०याँ वर्ष
जिसके हृदयमें पर-द्रव्यके प्रति अणुमात्र भी राग रहता है, वह यदि सब आगमोंका जाननेवाला हो तो भी वह स्व-समयको नहीं जानता, ऐसा जानना चाहिये ॥ ५३॥
इसलिये सब इच्छाओंसे निवृत्त होकर निःसंग और निर्ममत्व होकर जो सिद्धस्वरूपकी भक्ति करता है वह निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ ५४॥
परमेष्ठीपदमें जिसे तत्त्वार्थकी प्रतीतिपूर्वक भाक्ति है, और जिसकी बुद्धि निग्रंथ-प्रवचनमें रुचिपूर्वक प्रविष्ट हुई है, तथा जो संयम-तपसहित आचरण करता है, उसे मोक्ष कुछ भी दूर नहीं है ॥५५॥
जो अहंतकी, सिद्धकी, चैत्यकी और प्रवचनकी भक्तिसहित तपश्चर्या करता है, वह नियमसे देवलोकको प्राप्त करता है ॥ ५६ ॥
इस कारण इच्छामात्रकी निवृत्ति करो। कहीं भी किंचिन्मात्र भी राग मत करो। क्योंकि वीतराग भव-सागरको पार हो जाता है ॥ ५७ ॥
. मैंने प्रवचनकी भक्तिसे उत्पन्न प्रेरणासे, मार्गकी प्रभावनाके लिये, प्रवचनके रहस्यभूत पंचास्तिकायके संग्रहरूप इस शास्त्रकी रचना की है ॥ ५८ ॥
इति पंचास्तिकाय समाप्त.
जिन
आचार्य.
७०१ ववाणीआ, फाल्गुन वदी ११॥ मंगल १९५३ संवत् १९५३ को फाल्गुन वदी १२ भौमवार
मुख्य सिद्धांत
पद्धति
धर्म. शांतरस
अहिंसा
मुख्य. लिंगादि
व्यवहार
जिनमुद्रा-सूचक. मतांतर
समावेश शांतरस
प्रवहन अन्यको
धर्मप्राप्ति. लोक आदि स्वरूप
संशयकी निवृत्ति-समाधान. जिन
। प्रतिमा
कारण. कुछ गृह-व्यवहारको शांत करके परिगृह आदि कार्यसे निवृत्त होना चाहिये । अप्रमत्त गुणस्थानतक पहुँचना चाहिये । सर्वथा भूमिकाका सहजपरिणामी ध्यान
जिन
७०२ ववाणीआ, फाल्गुन वदी १२ भौम. १९५३ श्रीमद्राजचन्द्र-स्व-आत्मवशा प्रकाश अहा ! इस दिनको धन्य है, जो अपूर्व शान्ति जाग्रत हुई है । दस वर्षको अवस्थामें यह धारा उल्लसित हुई और उदय कर्मका गर्व दूर हो गया । अहा ! इस दिनको धन्य है ॥१॥
७०२ घन्य रे दिवस मा अहो, जागी जे रे शांति अपूर्व है, . · दश वर्षे रे पाय उलसी, मट्यो उदय कर्मनो गर्व रे । पन्य० ॥१॥