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६९४]. विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष
६५१ वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण है; वह असंख्यात प्रदेशल लोक-प्रमाण है, वह परिणामी है, अमूर्त है, अनंत अगुरुलघुगुणसे परिणमनशील द्रव्य है, स्वाभाविक द्रव्य है, कर्ता है, भोक्ता है, अनादि संसारी है, भव्यत्व लब्धि परिपाक आदिसे वह मोक्ष-साधनमें प्रवृत्ति करता है, . उसे मोक्ष होती है,
वह मोक्षमें स्वपरिणामयुक्त है, संसार-अवस्थामें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग उत्तरोत्तर बंधके स्थान हैं। । । सिद्धावस्थामें योगका भी अभाव है, मात्र चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्य ही सिद्धपद है, विभाव-परिणाम भावकर्म है। पुद्गलसंबंध द्रव्यकर्म है।
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*(८) आसवः-ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका पुद्गलके संबंधसे जो ग्रहण होता है, उसे द्रव्यास्रव जानना चाहिये । जिनभगवान्ने उसके अनेक भेद कहे हैं।
बंधः-जीव जिस परिणामसे कर्मका बंध करता है वह भावबंध है । कर्म-प्रदेश, परमाणु और जीवका अन्योन्य-प्रवेशरूपसे संबंध होना द्रव्यबंध है। .
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इस तरह चार प्रकारका बंध है । प्रकृति और प्रदेशबंध योगसे होता है। स्थिति और अनुभागबंध कषायसे होता है।
संवर-जो आस्रवका निरोध कर सके वह चैतन्यस्वभाव भावसंवर है; और उससे जो द्रव्यासवका निरोध करना है वह द्रव्यसंवर है । व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषह-जय इस तरह चारित्रके जो अनेक भेद हैं उन्हें भावसंवरके ही भेद जानना चाहिये ।
निर्जरा:-तपश्चर्याद्वारा जिस कालमें कर्मके पुद्गल रसको भोग लेते हैं, वह भावनिर्जरा है, तथा उन पुद्गल परमाणुओंका आत्मप्रदेशसे झड़ जाना द्रव्यनिर्जरा है।
मोक्षः-सब कर्माके क्षय होनेरूप आत्मस्वभाव भावमोक्ष है। कर्म-वर्गणासे आत्मद्रव्यका पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है।
* इसमें नेमिचन्द्र आचार्यकृत द्रव्यसंग्रहकी कुछ गाथाओंका अनुवाद दिया गया है।.. . . .- अनुवादक