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३०वाँ वर्ष
६६६ ववाणीआ, कार्तिक सुदी १० शनि. १९५३ मातेश्वरीको ज्वर आ जानेसे, तथा कुछ समयसे यहाँ आनेके संबंधमें उनकी विशेष आकांक्षा होनेसे, गत सोमवारको यहाँसे आज्ञा मिलनेसे, नडियादसे मंगलवारको खाना हुआ था। यहाँ बुधवारकी दुपहरको आना हुआ है ।
जब शरीरमें वेदनीयका असातारूपसे परिणमन हुआ हो, उस समय विचारवान पुरुष शरीरके अन्यथा स्वभावका विचार कर, उस शरीर और शरीरके साथ संबंधसे प्राप्त स्त्री पुत्र आदिका मोह छोड़ देते हैं, अथवा मोहके मंद करनेमें प्रवृत्ति करते हैं।
• आत्मसिद्धिशास्त्रका विशेष विचार करना चाहिये ।
६६७ ववाणीआ, कार्तिक सुदी ११ रवि. १९५३ जबतक जीव लोक-दृष्ठिका वमन न करे और उसमेंसे अंतर्वृत्ति न छूट जाय, तबतक ज्ञानीकी दृष्टिका माहात्म्य लक्षमें नहीं आ सकता, इसमें संशय नहीं।
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ववाणीआ, कार्तिक १९५३
ॐ
*परमपद पंथ अथवा वीतराग दर्शन
गीति जिस प्रकार परम वीतरागने परमपदके पंथका उपदेश किया है, उसका अनुसरण कर, उस प्रभुको भक्ति-रागसे प्रणाम करके, उस पंथको यहाँ कहेंगे ॥१॥
पूर्ण सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र ये परमपदके मूल कारण हैं । जहाँ ये तीनों एक स्वभावसे परिणमन करते हैं, वहाँ शुद्ध परिपूर्ण समाधि होती है ॥ २॥
मुनीन्द्र सर्वज्ञने जिस प्रकार जड़ और चेतन भावोंका अवलोकन किया है, वैसी अंतर आस्था प्रगट होनेपर तत्वज्ञोंने उसे दर्शन कहा है ॥३॥
सम्यक् प्रमाणपूर्वक उन सब भावोंके ज्ञानमें भासित होनेको सम्यग्ज्ञान कहा गया है । वहाँ संशयं विभ्रम और मोहका नाश हो जाता है ॥४॥
६१८ पंच परमपद बोध्यो, जेह प्रमाणे परम वीतरागे । ते अनुसरि कहींश, प्रणमीने ते प्रभु भक्ति रागे ॥१॥ मूळ परमपद कारण, सम्यग्दर्शन शान चरण पूर्ण । प्रणमे एक स्वभावे, शुद्ध समाधि त्या परिपूर्ण ॥२॥ जे चेतन जड भावो, अवलोक्या छ मुनीन्द्र सर्वशे । तेवी अंतर आस्था, प्रगटये दर्शन कहुं छे तस्वशे ॥ ३ ॥ सम्यक् प्रमाणपूर्वक, ते ते भावो शान विषे मासे । सम्यग्ज्ञान कहुं ते, संशय विभ्रम मोह त्यां नासे ॥४॥ * इस विषयकी ३६ या ५० गीतियाँ थीं। बाकीकी कहीं गुम गई है। यहाँ कुल आठ गीतियाँ दी गई है।
-अनुवादक.