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६९२ आनन्दधन चौबीसी-विवेचन] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष
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* वीतरागियोंमें ईश्वर ऐसे ऋषभदेवभगवान् मेरे स्वामी हैं। इस कारण अब मैं किसी दूसरे कंतकी इच्छा नहीं करती। क्योंकि वे प्रभु यदि एक बार भी रीझ जाँय तो फिर छोड़ते नहीं हैं । उन प्रभुका योग प्राप्त होना यह उसकी आदि है, परन्तु वह योग कभी भी निवृत्त नहीं होता, इसलिये वह अनंत है।
चैतन्यवृत्ति जो जगत्के भावोंसे उदासीन होकर, शुद्धचैतन्य-स्वभावमें समवस्थित भगवान्में प्रीतियुक्त हो गई है, आनंदघनजी उसके हर्षका प्रदर्शन करते हैं ।
अपनी श्रद्धा नामकी सखीको आनंदघनजीकी चैतन्यवृत्ति कहती है कि हे सखि ! मैंने ऋषभदेवभगवान्की साथ लग्न किया है और वह भगवान् मुझे सर्वप्रिय है। यह भगवान् मेरा पति हुआ है, इसलिये अब मैं अन्य किसी भी पतिकी कभी भी इच्छा न करूँगी ।क्योंकि अन्य सब जीव जन्म, जरा, मरण आदि दुःखोंसे आकुल व्याकुल हैंक्षणभरके लिये भी सुखी नहीं हैं। ऐसे जीवोंको पति बनानेस मुझे 'सुख कहाँसे हो सकता है ? तथा भगवान् ऋषभदेव तो अनन्त अव्याबाध सुख-समाधिको प्राप्त हुए हैं, इसलिये यदि उनका आश्रय ग्रहण करूँ तो मुझे भी उस वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। वर्तमानमें उस योगके मिलनेसे, हे सखि ! मुझे परम शीतलता हुई है। दूसरे पतियोंका तो कभी वियोग भी हो जाता है, परन्तु मेरे इस स्वामीका तो कभी भी वियोग हो ही नहीं हो सकता। जबसे वह स्वामी प्रसन्न हुआ है तभीसे वह कभी भी संग नहीं छोड़ता । इस स्वामीके योगके स्वभावको सिद्धांतमें 'सादिअनंत ' कहा है, अर्थात् उस योगके होनेकी आदि तो है, परन्तु उसका कभी भी वियोग होनेवाला नहीं, इसलिये वह अनंत है। इस कारण अब मुझे कभी भी उस पतिका वियोग नहीं होगा ॥१॥
हे सखि ! इस जगत्में पतिका वियोग न होनेके लिये स्त्रियाँ जो नाना प्रकारके उपाय करती हैं, वे उपाय यथार्थ उपाय नहीं है, और इस तरह मेरे पतिकी प्राप्ति नहीं होती । उन उपायोंको मिथ्या बतानेके लिये उनमेंसे थोड़ेसे उपायोंको तुझे कहती हूँ:
कोई स्त्री तो पतिकी साथ काष्ठमें जल जानेकी इच्छा करती है, जिससे सदा ही पतिकी साथ मिलाप रहे । परन्तु वह मिलाप कुछ संभव नहीं है, क्योंकि वह पति तो अपने कर्मानुसार जहाँ उसे जाना था वहाँ चला गया; और जो स्त्री सती होकर पतिसे मिलनेकी इच्छा करती है, वह स्त्री भी मिलापके लिये किसी चितामें जलकर मरनेकी ही इच्छा करती है, परन्तु उसे तो अपने कर्मानुसार ही देह धारण करना है । दोनों एक ही जगह देह धारण करें और पति-पत्नीरूपसे संबद्ध होकर निरंतर सुखका • आनन्दघनजीकृत श्रीऋषभजिन-स्तवनके पाँच पद्य निम्न प्रकारसे हैं:
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाहुं रे कंत। रीझ्यो साहिब संग न परिहरे रे, भांगे सादि अनंत || ऋषभ ॥ १ ॥ कोई कंत कारण काष्ठभक्षण करे रे, मळ\ कंतने धाय । ए मेळो नवि कदिये संभवे रे, मेळो ठाम न ठाय ।। ऋषभ० ॥ २ ॥ कोई पतिरंजन अतिषणुं तप करे रे, पतिरंजन तनताप । ए पतिरंजन में नवि चित धर्य रे, रंजन धातुमेळाप ॥ ऋषम० ॥ ३ ॥ कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे, लख पूरे मन आश । दोष रहितने लीला नवि घटे रे, लीला दोषविलास ॥ ऋषभ ॥४॥ चित्त प्रसने रे पूजनफळ कयुं रे, पूजा अखंडित एह। कपटरहित यई मातम-अरपणा रे, आनंदघनपदरेह ॥ ऋषम• ॥ ५॥ -अनुवादक,