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६९२आनन्दघन चौबीसी-विवेशन] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष
तो अनंत अव्याबाध सुखसे पूर्ण हैं। उनमें अन्य कोई कल्पना कहाँसे आ सकती है ! तथा लीलाकी उत्पत्ति तो कुतूहल वृत्तिसे होती है और वैसी कुतूहल वृत्ति तो ज्ञान-सुखकी अपरिपूर्णतासे होती है। तथा भगवान् ज्ञान और सुख दोनोंसे परिपूर्ण हैं, इसलिये उनकी प्रवृत्ति जगत्को रचनेरूप लीलाके प्रति कभी भी नहीं हो सकती। तथा यह लीला तो दोषका विलास है और वह सरागांके ही संभव है। तथा जो सरागी होता है वह द्वेषसहित होता है और जिसे ये दोनों होते हैं, उसे क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सब दोषोंका होना भी संभव है । इस कारण यथार्थ दृष्टिसे देखनेसे तो लीला दोषका ही विलास ठहरता है,
और ऐसे दोष-विलासकी तो इच्छा अज्ञानी ही करता है। जब विचारवान मुमुक्षु भी ऐसे दोष-विलासकी इच्छा नहीं करते, तो फिर अनंत ज्ञानमय भगवान् तो उसकी इच्छा कैसे कर सकते हैं ! इस कारण जो उस भगवान्के स्वरूपको लीलाके कर्त्ताभावसे समझता है वह भ्रान्ति है; और उस भ्रान्तिका अनुसरण करके जो भगवान्के प्रसन्न करनेके मार्गको ग्रहण करता है, वह मार्ग भी भ्रान्तिरूप ही है। इस कारण उसे उस भगवानरूप पतिकी प्राप्ति नहीं होती ॥४॥
हे सखि ! पतिके प्रसन्न करनेके तो अनेक प्रकार हैं । उदाहरणके लिये अनेक प्रकारके शब्द स्पर्श आदिके भोगसे पतिकी सेवा की जाती है । परन्तु उन सबमें चित्तकी प्रसन्नता ही सबसे उत्तम सेवा है, और वह ऐसी सेवा है जो कभी भी खंडित नहीं होती । कपटरहित होकर आत्मसमर्पण करके पतिकी सेवा करनेसे अत्यन्त आनंदके समूहकी प्राप्तिका भाग्योदय होता है ।
भगवानुरूप पतिकी सेवाके अनेक प्रकार हैं:-जैसे द्रव्यपूजा, भावपूजा, आज्ञापूजा। द्रव्यपूजाके भी अनेक भेद हैं। उनमें सर्वोत्कृष्ट पूजा तो चित्तकी प्रसन्नता—उस भगवान्में चैतन्यवृत्तिका परम हर्षसे एकत्वको प्राप्त करना ही है । उसमें ही सब साधन समा जाते हैं । वही अखंडित पूजा है, क्योंकि यदि चित्त भगवान्में लीन हो तो दूसरे योग भी चित्तके आधीन होनेसे वे भगवान्के ही आधीन रहते हैं; और यदि भगवान्मेंसे चित्तकी लीनता दूर न हो तो ही जगत्के भावोंमें उदासीनता रहती है, और उसमें ग्रहण-त्यागरूप विकल्प नहीं रहते । इस कारण वह सेवा अखंड ही रहती है।
जबतक चित्तमें अन्य कोई भाव हो तबतक यदि इस बातका प्रदर्शन किया जाय कि तुम्हारे सिवाय मेरा दूसरे किसीमें कोई भी भाव नहीं', तो वह वृथा ही है और वह कपट है और जबतक कपट रहता है तबतक भगवान्के चरणमें आत्मसमर्पण कहाँसे हो सकता है ! इस कारण जगत्के सर्व भावोंके प्रति विराम प्राप्त करके वृत्तिको शुद्ध चैतन्यभावयुक्त करनेसे ही, उस वृत्तिमें अन्यभाव न रहनेके कारण, वृत्ति शुद्ध कही जाती है और उसे ही निष्कपट कहते हैं। ऐसी चैतन्यवृत्ति भगवान्में लीन की जाय तो वही आत्मसमर्पणता कही जाती है।
धन धान्य आदि सब कुछ भगवान्को अर्पण कर दिया हो, परन्तु यदि आत्मसमर्पण न किया हो, अर्थात् उस आत्माकी वृत्तिको भगवान्में लीन न की हो, तो उस धन धान्य आदिका अर्पण करना सकपट ही है । क्योंकि अर्पण करनेवाली आत्मा अथवा उसकी वृत्ति तो किसी दूसरी जगह ही लीन हो रही है । तथा जो स्वयं दूसरी जगह लीन है, उसके अर्पण किये हुए दूसरे जड पदार्थ भगवान्में कहाँसे अर्पित हो सकते हैं ! इसलिये भगवान्में चित्तवृत्तिकी लीनता ही आत्मसमर्पणता है, और यही आनंदघन-पदकी रेखा अर्थात् परम अव्याबाध सुखमय मोक्षपदकी निशानी है। अर्थात् जिसे ऐसी दशाकी प्राप्ति हो जाय वह परम आनंदधनस्वरूप मोक्षको प्राप्त होगा। यह लक्षण ही सच्चा लक्षण है॥ ५॥ इति श्रीऋषभजिन-स्तवन ।