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६६१, ६६१, ६६३]
विविध पत्र मावि संग्रह-२९वाँ वर्ष ।
६६१ जीवको बंधनके मुख्य दो हेतु हैं-राग और द्वेष । रागके अभावसे द्वेषका अभाव होता है ! राग मुख्य है। रागके कारण ही आत्मा संयोगमें तन्मय रहती है । वही मुख्यरूपसे कर्म है।
ज्यों ज्यों राग-द्वेष मंद होते हैं त्यों त्यों कर्म-बंध भी मंद होता है और ज्यों ज्यों राग-द्वेष तीव्र होते हैं त्यों त्यों कर्मबंध भी तीव्र होता है। जहाँ राग-द्वेषका अभाव है वहाँ कर्मबंधका सांपरायिक अभाव है।
राग-द्वेष होनेका मुख्य कारण मिथ्यात्व-असम्यग्दर्शन है। . सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन होता है, उससे असम्यग्दर्शनकी निवृत्ति होती है । उस जीवको सम्यक्चारित्र प्रगट होता है । वही वीतरागदशा है ।
सम्पूर्ण वीतरागदशा जिसे रहती है, उसे हम चरमशरीरी मानते हैं ।
६६२ षविहाण विमुकं, वंदिअ सिरिवद्धमाणजिणचंदं ॥ xसिरिवीरजिणं वंदिअ, कम्मविवागं समासओ वुच्छं ।
कीरई जिएण हेऊहिं, जेणं तो भण्णए कम्मं ॥ +कम्मदब्वेहि समं, संजोगी जो होई जीवस्स । सो बंधो णायव्यो, तस्स वियोगो भवे मोक्खो ॥
६६३ नडियाद, आसोज वदी १. शनि. १९५२
(१) १. श्रीसद्गुरुदेवके अनुप्रहसे यहाँ समाधि है ।
२. इसके साथ एकांतमें अवगाहन करनेके लिये आत्मसिद्धिशाल भेजा है । वह हालमें श्री......"को अवगाहन करने योग्य है।
३. श्री....."अथवा श्री......."की यदि जिनागमके विचारनेकी इच्छा हो तो आचारांग, सूयगडांग, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और प्रश्नव्याकरण विचार करने योग्य हैं। * यह सम्पूर्ण गाथा निमरूपसे है:
बंधविहाणविमुकं वदिम सिरिवनमाणजिणचंद । गईआईतुं पुच्छ, समासओ बंधसामितं ॥ अर्थात् कर्म-पंधकी रचनासे रहित भीवर्षमानजिनको नमस्कार करके गति आदि चौदह मार्गणामोद्वारा संक्षपसे पंप स्वामित्वको काँगा।
xभीवीरजिनको नमस्कार करके संसपसे कर्मविपाक नामक ग्रन्थको कहूँगा। जो जीवसे किसी हेतलाय किया जाता है, उसे कर्म करते हैं।
+ मके लिये देखो मंक १२७ ।