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६०८ श्रीमद् राजचन्द्र
[६६. (२) या आत्माका कर्तृत्व न होनेपर भी कर्म हो गये ! (३) या ईश्वर आदि किसीके लगा देनेसे कर्म हो गये !
(४) या प्रकृतिके बलपूर्वक संबंध हो जानेसे कर्म हो गये ! इस तरह मुख्य चार विकल्पोंसे अनायास कर्तापनका विचार करना योग्य है ।
प्रथम विकल्प यह है कि 'आत्माके द्वारा बिना विचारे ही कर्म हो गये।परन्तु यदि ऐसा होता हो तो फिर कर्मका ग्रहण करना ही नहीं रहता; और जहाँ कर्मका ग्रहण करना न हो वहाँ कर्मका अस्तित्व भी नहीं हो सकता। परन्तु जीव तो उसका प्रत्यक्ष चितवन करता है, और उसका ग्रहणाग्रहण करता है, ऐसा अनुभव होता है । तथा जिनमें जीव किसी भी तरह प्रवृत्ति नहीं करता, ऐसे क्रोध आदि भाव उसे कभी भी प्राप्त नहीं होते; इससे मालूम होता है कि आत्माके बिना बिचारे हुए अथवा आत्मासे न किये हुए कर्मोका प्रहण आत्माको नहीं हो सकता । अर्थात् इन दोनों प्रकारोंसे अनायास कर्मका ग्रहण सिद्ध नहीं होता।
तीसरा विकल्प यह है कि 'ईश्वर आदि किसीके कर्म लगा देनेसे अनायास ही कर्मका ग्रहण होता है'-यह भी ठीक नहीं। क्योंकि प्रथम तो ईश्वरके स्वरूपका ही निश्चय करना चाहिये।
और इस प्रसंगको भी विशेष समझना चाहिये । फिर भी यहाँ ईश्वर अथवा विष्णु आदिको किसी तरह कर्ता स्वीकार करके उसके ऊपर विचार करते हैं:
यदि ईश्वर आदि कर्मका लगा देनेवाला हो तो फिर तो बीचमें कोई जीव नामका पदार्थ ही न रहा। क्योंकि जिन प्रेरणा आदि धर्मसे जो वह अस्तित्व समझमें आता था, वे प्रेरणा आदि तो ईश्वरकृत ठहरे; अथवा वे ईश्वरके ही गुण ठहरे। तो फिर जीवका स्वरूप ही क्या बाकी रह गया जिससे उसे जीव-आत्मा-कहा जा सके ! अर्थात् कर्म ईश्वरसे प्रेरित नहीं हैं, किन्तु वे स्वयं आत्माके ही किये हुए हो सकते हैं।
तथा 'प्रकृति आदिके बलपूर्वक कर्म लग जानेसे कर्म अनायास ही हो जाते हों-यह चौथा विकल्प भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि प्रकृति आदि जड़ हैं, उन्हें यदि आत्मा ही ग्रहण न करे तो वे उससे किस तरह संबद्ध हो सकते हैं ! अथवा द्रव्यकर्मका ही दूसरा नाम प्रकृति है। इसलिये यह तो कर्मको ही कर्मका कर्ता कहनेके बराबर हुआ, और इसका तो पूर्वमें निषेध कर ही चुके हैं। यदि कहो कि प्रकृति न हो तो अन्तःकरण आदि जो कर्मको ग्रहण करते हैं, उससे आत्मामें कर्तृत्व सिद्ध होता है तो वह भी एकांतसे सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि अन्तःकरण आदि भी अन्तःकरण आदिरूपसे चेतनकी प्रेरणाके बिना, पहिले ठहर ही कहाँसे सकते हैं ! क्योंकि चेतन कौकी संलग्रताका मनन करनेके लिये जो अवलंबन लेता है, उसे अन्तःकरण कहते हैं । इसलिये यदि चेतन उसका मनन न करे तो कुछ स्वयं उस संलग्रतामें मनन करनेका धर्म नहीं है। वह तो केवल जब है । चेतन चेतनकी प्रेरणासे उसका अवलंबन लेकर कुछ ग्रहण करता है, उससे उसमें कर्तापनेका आरोप होता है, परन्तु मुख्यरूपसे तो वह चेतन ही कर्मका कर्ता है।
यहाँ यदि वेदान्त आदि दृष्टिसे विचार करोगे तो हमारे ये वाक्य किसी भ्रांतियुक्तं पुरुषके कहे हुए मालूम होंगे। परन्तु जिस प्रकारसे नीचे कहा है उसके समझनेसे तुम्हें उन वाक्योंकी यथार्थता मालूम होगी, और भ्रांति दूर होगी।