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मात्मसिद्धि
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समाधान-सद्गुरु उवान:सद्गुरु समाधान करते हैं कि आत्मा कर्मकी कर्ता किस तरह है:
होय न चेतन प्रेरणा, कोण आहे तो करें ।
जडस्वभाव नहीं प्रेरणा, जुओ विचारी धर्म ॥ ७४॥ चेतन-आत्मा की प्रेरणारूप प्रवृत्ति न हो तो कर्मको फिर कौन ग्रहण करेगा! क्योंकि जड़का स्वभाव तो कुछ प्रेरणा करनेका है नहीं। जड़ और चेतन दोनोंके धर्मोको विचार करके देखो ॥
यदि चेतनकी प्रेरणा न हो तो कर्मको फिर कौन ग्रहण करेगा: प्रेरणारूपसे ग्रहण करानेरूप स्वभाव कुछ जड़का तो है नहीं। और यदि ऐसा हो तो घट पट आदिका भी क्रोध आदि भावमें परिणमन होना चाहिये, और फिर तो उन्हें भी कर्मको ग्रहण करना चाहिये । परन्तु ऐसा तो किसीको कभी भी अनुभव होता नहीं। इससे सिद्ध होता है कि चेतन-जीव-ही कर्मको ग्रहण करता है,
और इस कारण उसे ही कर्मका कर्ता कहते हैं-इस तरह जीव ही कर्मका कर्ता सिद्ध होता है। इससे 'कर्मका कर्ता कर्म ही कहा जायगा या नहीं !' तुम्हारी इस शंकाका भी समाधान हो जायगा। क्योंकि जड़ कर्ममें प्रेरणारूप धर्म न होनेसे वह उस तरह कर्मोके ग्रहण करनेको असमर्थ है; इसलिये कर्मका कर्तापन जीवमें ही है, क्योंकि प्रेरणाशक्ति उसीमें है।
जो चेतन करतुं नथी, थतां नयी तो कर्म ।
तेथी सहज स्वभाव नहीं, तेमज नहीं जीवधर्म ।। ७५ ॥ यदि आत्मा कर्मको न करती तो वह कर्म होता भी नहीं; इससे यह कहना योग्य नहीं कि वह कर्म सहज स्वभावसे-अनायास ही-हो जाता है । इसी तरह जीवका वह धर्म भी नहीं है, क्योंकि स्वभावका तो नाश होता नहीं। तथा यदि आत्मा कर्म न करे तो कर्म होता भी नहीं; अर्थात् यह भाव दूर हो सकता है, इसलिये आत्माका यह स्वाभाविक धर्म नहीं ।
केवळ होत असंग जो, भासत तने न केम।
____ असंग छ परमार्थथी, पण निजभाने तेम ॥ ७६ ॥ यदि आत्मा सर्वथा असंग होती अर्थात् उसे कभी भी कर्मका कर्त्तापन न होता, तो फिर स्वयं तुझे ही वह आत्मा पहिलेसे ही क्यों न भासित होती ! यद्यपि परमार्थसे तो आत्मा असंग ही है, परन्तु यह तो जब हो सकता है जब कि स्वरूपका भान हो जाय ।
कर्ता ईश्वर को नहीं, ईश्वर शुद्ध स्वभाव ।
अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोषप्रभाव ॥ ७७ ॥ जगत्का अथवा जीवोंके कर्मका कर्ता कोई ईश्वर नहीं है । क्योंकि जिसका शुद्ध आत्मस्वभाव प्रगट हो गया है वही ईश्वर है, और यदि उसे प्रेरक अर्थात् कर्मका कर्ता मानें तो उसे भी दोषका प्रभाव मानना चाहिये । इसलिये जीवके कर्मोंके कर्त्तापनेमें ईश्वरकी प्रेरणा भी नहीं कही जा सकती ॥
- अब तुमने जो कहा कि वे कर्म अनायास ही होते रहते हैं, तो यहाँ अनायासका क्या अर्थ होता है!
(१) क्या कर्म आत्माके द्वारा बिना विचारे ही हो गये! . .