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. मात्मसिद्धि
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होते हैं, उनमें कुछ पूर्वजन्म कारण नहीं है, तो यह कहना भी यथार्थ नहीं। क्योंकि जो मा-बाप काम-वासनामें विशेष प्रीतियुक्त देखनेमें आते हैं, उनके पुत्र बालपनसे ही परम वीतराग जैसे देखे जाते हैं। तथा जिन माता-पिताओंमें क्रोधकी विशेषता देखी जाती है, उनकी संततिमें समताकी विशेषता दृष्टिगोचर होती है-यह सब फिर कैसे हो सकता है ! तथा उस वीर्य-रेतसके वैसे गुण नहीं होते, क्योंकि वह वीर्य-रेतस स्वयं चेतन नहीं है। उसमें तो चेतनका संचार होता है-अर्थात् उसमें चेतन स्वयं देह धारण करता है । इस कारण वीर्य और रेतसके आश्रित क्रोध आदि भाव नहीं माने जा सकते-चेतनके बिना वे भाव कहीं भी अनुभवमें नहीं आते । इसलिये वे केवल चेतनके ही आश्रित हैं, अर्थात वे वीर्य
और रेतसके गुण नहीं । इस कारण वीर्यकी न्यूनाधिकताकी मुख्यतासे क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता नहीं हो सकती । चेतनके न्यूनाधिक प्रयोगसे ही क्रोध आदिकी न्यूनाधिकता होती है, जिससे वे गर्भस्थ वीर्य-रेतसके गुण नहीं कहे जा सकते, परन्तु वे गुण चेतनके ही आश्रित हैं; और वह न्यूनाधिकता उस चेतनके पूर्वके अभ्याससे ही संभव है। क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। यदि चेतनका पूर्वप्रयोग उस प्रकारसे हो तो ही वह संस्कार रहता है, जिससे इस देह आदिके पूर्वके संस्कारोंका अनुभव होता है, और वे संस्कार पूर्व-जन्मको सिद्ध करते हैं; तथा पूर्व-जन्मकी सिद्धिसे आत्माकी नित्यता सहज ही सिद्ध हो जाती है।
आत्मा द्रव्ये नित्य छ, पर्याये पलटाय ।
बाळादि वय ण्यनु, ज्ञान एकने थाय ॥ ६८॥ आत्मा वस्तुरूपसे नित्य है, किन्तु प्रतिसमय ज्ञान आदि परिणामके पलटनेसे उसकी पर्यायमें परिवर्तन होता है । जैसे समुद्रमें परिवर्तन नहीं होता, केवल उसकी लहरोंमें परिवर्तन होता है। उदाहरणके लिये बाल युवा और वृद्ध ये जो तीन अवस्थायें हैं, वे आत्माकी विभाव-पर्याय हैं । बाल अवस्थाके रहते हुए आत्मा बालक मालूम होती है। उस बाल अवस्थाको छोड़कर जब आत्मा युवावस्था धारण करती है, उस समय युवा मालूम होती है; और युवावस्था छोड़कर जब वृद्धावस्था धारण करती है, उस समय वृद्ध मालूम होती है । इन तीनों अवस्थाओंमें जो भेद है वह पर्यायभेद ही है । परन्तु इन तीनों अवस्थाओंमें आत्म-द्रव्यका भेद नहीं होता; अर्थात् केवल अवस्थाओंमें ही परिवतन होता है, आत्मामें परिवर्तन नहीं होता । आत्मा इन तीनों अवस्थाओंको जानती है, और उसे ही उन तीनों अवस्थाओंकी स्मृति है। इसलिये यदि तीनों अवस्थाओं में एक ही आत्मा हो तो ही यह होना संभव है। यदि आत्मा क्षण क्षणमें बदलती रहती हो तो वह अनुभव कभी भी नहीं हो सकता।
अथवा ज्ञान क्षणिक, जे जाणी वदनार ।
वदनारो ते क्षणिक नहीं, कर अनुभव निर्धार ॥ ६९ ॥ तथा अमुक पदार्थ क्षणिक है जो ऐसा जानता है, और क्षणिकत्वका कथन करता है, वह कथन करनेवाला अर्थात् जाननेवाला क्षणिक नहीं होता । क्योंकि प्रथम क्षणमें जिसे अनुभव हुआ हो उसे ही दूसरे क्षणमें वह अनुभव हुआ कहा जा सकता है, और यदि दूसरे क्षणमें वह स्वयं ही न हो तो फिर उसे वह अनुभव कहाँसे कहा जा सकता है ! इसलिये इस अनुभवसे भी तू आत्माके अक्षाणिकत्वका निश्चय कर।