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६२० श्रीमद् राजचन्द्र
[६६० आत्माका जो शुद्धपद है वही मोक्ष है; और जिससे वह मोक्ष प्राप्त किया जाय वह मोक्षका मार्ग है । श्रीसद्गुरुने कृपा करके निम्रन्थके सकल मार्गको समझाया है ।
अहो ! अहो ! श्रीसद्गुरु, करुणासिंधु अपार ।
आ पामरपर प्रभु कर्यो, अहो ! अहो ! उपकार ॥ १२४ ॥ अहो ! अहो ! करुणाके अपार, समुद्रस्वरूप, आत्म-लक्ष्मीसे युक्त सद्गुरु ! आप प्रभुने इस पामर जीवपर आश्चर्यजनक उपकार किया है ।
शुं प्रभु चरणकने धरूं ! आत्माथी सौ हीन ।
ते तो प्रभुए आपियो, वर्तु चरणाधीन ॥ १२५ ॥ मैं प्रभुके चरणोंके समक्ष क्या रक्खू ! ( सद्गुरु तो यद्यपि परम निष्काम हैं-एकमात्र निष्कारण करुणासे ही उपदेशके देनेवाले हैं, परन्तु शिष्यने शिष्यधर्मसे ही यह वचन कहा है)। जगत्में जितनेभर पदार्थ हैं, वे सब आत्माकी अपेक्षासे तो मूल्यहीन ही हैं । फिर उस आत्माको ही जिसने प्रदान किया है, उसके चरणोंके समीप मैं दूसरी और क्या मेंट रक्खू ! मैं केवल उपचारसे इतना ही करनेको समर्थ हूँ कि मैं एक प्रभुके चरणोंके ही आधीन रहूँ।
आ देहादि आजथी, वों प्रभुआधीन ।
दास दास हुँदास छु, तेह प्रभुनो दीन ॥ १२६ ॥ . . इस देह आदि शब्दसे जो कुछ मेरा माना जाता है, वह आजसे ही सद्गुरु प्रभुके आधीन रहो। मैं उस प्रभुका दास हूँ-दास हूँ-दीन दास हूँ।
षट् स्थानक समजावीने, भिम बताव्यो आप।
म्यानयको तरवारवत् , ए उपकार अमाप ॥ १२७ ॥ हे सद्गुरु देव ! छह स्थानोंको समझाकर, जिस तरह कोई म्यानसे तलवारको अलग निकालकर बताता है, उसी तरह आपने देह आदिसे आत्माको स्पष्ट भिन्न बताई है । इसलिये आपने मेरा असीम उपकार किया है।
उपसंहार
दर्शन पटे शमाय छ, आ षट् स्थानक माहि ।
विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांइ ॥ १२८ ॥ छहों दर्शन इन छह स्थानोंमें समाविष्ट हो जाते हैं । इनका विशेषरूपसे विचार करनेसे इसमें किसी भी प्रकारका संशय नहीं रह जाता।
आत्मभ्रांतिसम रोग नहीं, सद्गुरु वैध मुजान ।
गुरुआमासम पथ्य नहीं, औषध विचार ध्यान ॥ १२९ ॥ आत्माको जो अपने निज स्वरूपका भान नहीं-इसके समानं दूसरा कोई भी रोग नहीं; सद्गुरुके समान उसका कोई भी सच्चा अथवा निपुण वैध नहीं; सगुरुकी आज्ञापूर्वक चलनेके समान दूसरा कोई भी पथ्य नहीं; और विचार तथा निदिध्यासनके समान उसकी दूसरी कोई भी औषधि नहीं।
जो इच्छो परमार्य तो, करो सत्य पुरुषार्थ ।। भवस्थिति आदि नाम सह, छेदी नहीं आत्मार्थ ॥ १३०॥