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आत्मसिद्धि
इसी धर्मसे मोक्ष है; और तू ही मोक्षस्वरूप है, अर्थात् शुद्ध आत्मपद ही मोक्ष है । तू अनंतज्ञान दर्शन तथा अन्याबाध सुखस्वरूप है ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन, स्वयंज्योति मुखधाम ।
बीजुं कहिये केटलु १ कर विचार तो पाम ॥ ११७ ॥ तू देह आदि सब पदार्थोसे जुदा है । आत्मद्रव्य न किसी दूसरेमें मिलता है और न आत्मद्रव्यमें कोई मिलता है। परमार्थसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे सदा भिन्न है, इसलिये तू शुद्ध है-बोध स्वरूप हैचैतन्य-प्रदेशात्मक है-स्वयं-ज्योति है-तेरा कोई भी प्रकाश नहीं करता--तू स्वभावसे ही प्रकाशखरूप है, और अव्याबाध सुखका धाम है । अधिक कितना कहें ! अधिक क्या कहें ! संक्षेपमें इतना ही कहते हैं कि यदि तू विचार करेगा, तो तू उस पदको पावेगा।
निश्चय सर्वे हानीनो, आवी अत्र शमाय ।
धरी मौनता एम कही, सहजसमाधि माय ॥ ११८ ॥ सब ज्ञानियोंका निश्चय इसीमें आकर समा जाता है-यह कहकर सद्गुरु मौन धारण करकेवचन-योगकी प्रवृत्तिका त्याग करके सहज समाधिमें स्थित हो गये । शिष्य-बोधवीज-प्राप्ति कथन
सद्गुरुना उपदेशथी, आव्युं अपूर्व भान ।
निजपद निज मांही लहायुं, दूर थयु अज्ञान ॥ ११९ ॥ शिष्यको सद्गुरुके उपदेशसे अपूर्व-जो पूर्वमें कभी भी प्राप्त न हुआ हो.-भान हुआ; उसे निजका स्वरूप अपने निजमें जैसाका तैसा भासित हुआ; और देहमें आत्म-बुद्धिरूप उसका अज्ञान दूर हो गया।
भास्युं निजस्वरूप ते, शुद्ध चेतनारूप ।
अजर अमर अविनाशी ने, देहातीत स्वरूप ॥ १२० ॥ वह अपना निजका स्वरूप शुद्ध, चैतन्यस्वरूप, अजर, अमर, अविनाशी और देहसे स्पष्ट भिन्न भासित हुआ।
कर्ता भोक्ता कर्मनी, विभाव पर्ने ज्याय ।
वृत्ति वही निजभावमा, थयो अकर्ता त्यांय ॥ १२१ ॥ जहाँ विभाव-मिथ्यात्व--रहता है, वहीं मुख्यनयसे कर्मका कर्तापन और भोक्तापन है। आत्मस्वभावमें वृत्ति प्रवाहित होनेसे तो यह जीव अकर्ता हो जाता है।
अथवा निजपरिणाम से, शुद्ध चेतनारूप ।
कर्चा भोक्ता तेहनो, निर्विकल्पस्वरूप ॥ १२२ ॥ अथवा शुद्ध चैतन्यस्वरूप जो आत्म-परिणाम है, जीव उसका निर्विकल्प स्वरूपसे कर्ता और मौका है।
मोल कसी निजशुद्धवा, ते पामे ते पंथ । समणान्यो संक्षेपमा, सकळ मार्ग निर्जन्य ॥ १२३ ॥