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श्रीमद् राजचन्द्र
[६९. अपने स्वरूपके भानमें आत्मा अपने स्वभावकी अर्थात् चैतन्य आदि स्वभावकी ही कर्ता है, अन्य किसी भी कर्म आदिकी कर्ता नहीं; और जब आत्मा अपने स्वरूपके भानमें नहीं रहती, तो उसे कर्मभावकी कर्चा कहा है।
परमार्थसे तो जीव निष्क्रिय ही है, ऐसा वेदान्त आदि दर्शनोंका कथन है और जिन-प्रवचनमै भी सिद्ध अर्थात् शुद्ध आत्माकी निष्क्रियताका निरूपण किया है। फिर भी, यहाँ यह संदेह हो सकता है कि हमने आत्माको शुद्धावस्थामें कर्ता होनेसे सक्रिय क्यों कहा ! उस संदेहकी निवृत्ति इस तरह करनी चाहिये:-शुद्धात्मा, परयोगकी परभावकी और विभावकी कर्ता नहीं है, इसलिये वह निष्क्रिय कही जाने योग्य है। परन्तु यदि ऐसा कहें कि आत्मा चैतन्य आदि स्वभावकी भी कर्ता नहीं, तब तो फिर उसका कुछ स्वरूप ही नहीं रह जाता । इस कारण शुद्धात्माको योग-क्रिया न होनेसे वह निष्क्रिय है, परन्तु स्वाभाविक चैतन्य आदि स्वभावरूप क्रिया होनेसे वह सक्रिय भी है। तथा चैतन्यस्वभाव, आत्माका स्वाभाविक गुण है, इस कारण उसमें एकात्मरूपसे ही आत्माका परिणमन होता है, और उससे यहाँ परमार्थनयसे भी आत्माको सक्रिय विशेषण नहीं दिया जा सकता। परन्तु निज स्वभावमें परिणमनरूप क्रिया होनेसे, शुद्ध आत्माको निज स्वभावका कर्त्तापन है। इस कारण उसमें सर्वथा शुद्ध स्वधर्म होनेसे उसका एकात्मरूपसे परिणमन होता है, इसलिये उसे सक्रिय कहनेमें भी दोष नहीं है।
जिस विचारसे सक्रियता और निष्क्रियताका निरूपण किया है, उस विचारके परमार्थको प्रहण करके सक्रियता और निष्क्रियता कहनेमें कुछ भी दोष नहीं। ४ शंका-शिष्य उवाच:शिष्य कहता है कि जीव कर्मका भोक्ता नहीं होताः
जीव कर्मकर्ता कहो, पण भोक्ता नहीं सोय ।
शुं समजे जड कर्म के, फळपरिणामी होय ॥ ७९ ॥ यदि जीवको कर्मका कर्ता मान भी लें तो भी जीव उस कर्मका भोक्ता नहीं ठहरता। क्योंकि जद कर्म इस बातको क्या समझ सकता है कि उसमें फल देनेकी शक्ति है !
फदळाता ईश्वर गण्ये, भोक्तापणुं सपाय ।
- एम कहे ईश्वरतणु, ईश्वरपणुं ज जाय ॥ ८॥ ___ हाँ, यदि फल देनेवाले किसी ईश्वरको मानें तो भोक्तृत्वको सिद्ध कर सकते हैं; अर्थात् जीवको ईश्वर कर्म भोगवाता है, यह मानें तो जीव कर्मका भोक्ता सिद्ध होता है। परन्तु इसमें फिर यह भी विरोध आता है कि यदि ईश्वरको दूसरेको फल देने आदि प्रवृत्तियुक्त मानें तो उसका ईश्वरत्व ही नहीं रहता ॥
" ईश्वरके सिद्ध हुए बिना-कर्मके फल देने आदिमें किसी भी ईश्वरके सिद्ध हुए बिना-जगत्की व्यवस्थाका टिकना संभव नहीं है"-इस संबंधमें निम्नरूपसे विचार करना चाहिये:
____ यदि ईश्वरको कर्मका फल देनेवाला मानें तो वहाँ ईश्वरका ईश्वरत्व ही नहीं रहता। क्योंकि दूसरेको फल देने आदिके प्रपंचमें प्रवृत्ति करते हुए, ईश्वरको देह आदि अनेक प्रकारका संग होना संभव है, और उससे उसकी यथार्थ शुद्धताका भंग होता है। जैसे मुक्त जीव निष्क्रिय है, अर्थात् जैसे वह परभाव आदिका कर्ता नहीं है, क्योंकि यदि वह परभाव आदिका कर्ता हो तो फिर उसे संसारकी ही प्राप्ति होनी चाहिये।