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५७२ श्रीमद् राजचन्द्र
[६४३ वाणी निकलती है । वे किसी जीवको ऐसा नहीं कहते कि तू दीक्षा ले ले। तीर्थकरने पूर्वमें जो कर्म बाँधे हैं, उनका वेदन करनेके लिये वे दूसरे जीवोंका कल्याण करते हैं, नहीं तो उन्हें उदयानुसार दया रहती है । वह दया निष्कारण ह, तथा उन्हें दूसरेकी निर्जरासे अपना कल्याण नहीं करना है। उनका कल्याण तो हो ही गया है । वह तीन लोकका नाथ तो पार होकर ही बैठा है। सत्पुरुष अथवा समकितीको भी ऐसी ( सकाम ) उपदेश देनेकी इच्छा नहीं होती। वह भी निष्कारण दयाके वास्ते ही उपदेश देता है । महावीरस्वामी गृहवासमें रहते हुए भी त्यागी जैसे थे।
. हजारों वर्षका संयमी भी जैसा वैराग्य नहीं रख सकता, वैसा वैराग्य भगवान्का था। जहाँ जहाँ भगवान् रहते हैं, वहाँ वहाँ सब प्रकारका उपकार भी रहता है । उनकी वाणी उदयके अनुसार शांतिपूर्वक परमार्थ हेतुसे निकलती है, अर्थात् उनकी वाणी कल्याणके लिये ही होती है। उन्हें जन्मसे मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान थे । उस पुरुषके गुणगान करनेसे अनंत निर्जरा होती है। ज्ञानीकी बात अगम्य है । उनका अभिप्राय जाननेमें नहीं आता । ज्ञानी-पुरुषकी सच्ची खूबी यह है कि उन्होंने अनादिसे दूर न होनेवाले राग-द्वेष और अज्ञानको छिन्न-भिन्न कर डाला है । इस भगवान्की अनंत कृपा है । उन्हें पच्चीसप्तौ वर्ष हो गये, फिर भी उनकी दया आदि आजकल भी मौजूद हैं। यह उनका अनंत उपकार है । ज्ञानी आडम्बर दिखानेके लिये व्यवहार करते नहीं । वे सहज स्वभावसे उदासीन भावसे रहते हैं।
ज्ञानी दोषके पास जाकर दोषका छेदन कर लता है; व कि अज्ञानी जीव दोषको छोड़ नहीं सकता । ज्ञानीकी बात अद्भुत है।
बाड़े कल्याण नहीं है। अज्ञानीका बाड़ा होता है। जैसे पत्थर स्वयं नहीं तैरता और दूसरेको भी नहीं तैराता, उसी तरह अज्ञानी है। वतिरागका मार्ग अनादिका है। जिसके राग द्वेष और अज्ञान दूर हो गये, उसका कल्याण हो गया । परन्तु अज्ञानी कहे कि मेरे धर्मसे कल्याण है, तो उसे मानना नहीं । इस तरह कल्याण होता नहीं। ढूंढियाफ्ना अथवा तप्पापना माना हो तो कषाय चढ़ती है । तप्पा दूढियाके साथ बैठा हो तो कषाय चढ़ती है, और ढूंढिया तप्पाके साथ बैठे तो कषाय चढ़ती है-इन्हें अज्ञानी समझना चाहिये। दोनों ही समझे बिना बाड़ा बाँधकर कर्म उपार्जन कर भटकते फिरते हैं। बोहरेकी* नाईकी तरह वे मताग्रह पकड़े बैठे हैं। मुंहपत्ति आदिके आग्रहको छोड़ देना चाहिये।
. जैनमार्ग क्या है ? राग, द्वेष और अज्ञानका नाश हो जाना। अज्ञानी साधुओंने भोले जीवोंको समझाकर उन्हें मार डालने जैसा कर दिया है । यदि प्रथम स्वयं विचार करे कि मेरा दोष कौनसा कम
बोहरा (बोरा ) इस्लाम धर्मकी एक शाखाके अनुयायी मुसलमानोंकी एक जाति होती है । बोहरा लोग मूलमें सिद्धपुर (गुजरात) के निवासी ब्राह्मण थे। ये लोग मुसलमानोंके राज्य-समयमें मुसलिम धर्मके अनुयायी हो गये थे।बोहरा लोग प्रायः व्यापारी ही होते हैं। कहा जाता है कि जहाँतक बने ये लोग नौकरी-पेशा करना पसंद नहीं करते। इनके धर्मगुरु मुलाजीका प्रधान केन्द्र सूरतमें है। एक बारकी बात है कि कोई बोहरा व्यापारी गाडीमें माल भरकर चला जा रहा था । रास्तेमें कोई गड़ा आया तो गाड़ीवानने बोहराजीसे 'नाना पकाकर होशियार होकर बैठ जानेको कहा । नाइके दो अर्थ होते हैं। एक तो पायजामेमें जो इज़हारबन्द होता है, उसे नासा कहते हैं, और दूसरे रस्सी-बोरी-को भी नाड़ा कहते हैं। गाड़ीवानका अभिप्राय इस रस्सीको ही पकाकर बैठे रहनेका था। परन्तु बोहालीने समसा कि गादीवान इज़हारबन्दको पकाकर बैठनेके लिये कह रहा है। इसलिये वे अपने नाडेको .ओरसे पकाकर बैठ गये। -अनुवादक.