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उपदेश-छाया हुआ है, तो मालूम होगा कि जैनधर्म तो मेरेसे दूर ही रहा है। जीव उल्टी समझसे अपने कल्याणको भूलकर दूसरेका अकल्याण करता है । तप्पा दूँढियाके साधुको, और ढूंढिया तप्पाके साधुको अन्न-पानी न देनेके लिये अपने अपने शिष्योंको उपदेश करते हैं । कुगुरु लोग एक दूसरेको मिलने नहीं देते। यदि वे एक दूसरेको मिलने दें तो कषाय कम हो जाय-निन्दा घट जाय । . .
जीव निष्पक्ष नहीं रहता । वह अनादिसे पक्षमें पड़ा हुआ है, और उसमें रहकर कल्याण भूल जाता है।
बारह कुलकी जो गोचरी कही है, उसे बहुतसे मुनि नहीं करते । उनका कपड़े आदि परिप्रहका मोह दूर हुआ नहीं । एक बार आहार लेनेके लिये कहा है फिर भी वे दो बार लेते हैं । जिस ज्ञानीपुरुषके वचनसे आत्मा उच्च दशा प्राप्त करे वह सच्चा मार्ग है-वह अपना मार्ग है। सच्चा धर्म पुस्तकमें है, परन्तु आत्मामें गुण प्रगट न हों तबतक वह कुछ फल नहीं देता। 'धर्म अपना है' ऐसी एक कल्पना ही है । अपनाधर्म क्या है? जैसे महासागर किसीका नहीं, उसी तरह धर्म भी किसीके बापका नहीं है। जिसमें दया सत्य आदि हों, उसीको पालो । वह किसीके बापका नहीं है । वह अनादिकालका है-शाश्वत है। जीवने गाँठ पकड़ ली है कि धर्म अपना है। परन्तु शाश्वत मार्ग क्या है ! शाश्वत मार्गसे सब मोक्ष गये हैं । रजोहरण, डोरी, मुँहपत्ती या कपड़ा कोई आत्मा नहीं। बोहरेकी नाड़ेकी तरह जीव पक्षका आग्रह पकड़े बैठा है-ऐसी जीवकी मूढ़ता है। अपने जैनधर्मके शास्त्रोंमें सब कुछ है, शास्त्र अपने पास हैं, ऐसा मिथ्याभिमान जीव कर बैठा है। तथा क्रोध, मान, माया और लोभरूपी चोर जो रात दिन माल चुरा रहे हैं, उसका उसे भान नहीं।
तीर्थंकरका मार्ग सच्चा है। द्रव्यमें कौड़ीतक भी रखनेकी आज्ञा नहीं। वैष्णवोंके कुलधर्मके कुगुरु आरंभ-परिग्रहके छोड़े बिना ही लोगोंके पाससे लक्ष्मी ग्रहण करते हैं, और उस तरहका तो एक व्यापार हो गया है। वे स्वयं अग्निमें जलते हैं, तो फिर उनसे दूसरोंकी अग्नि किस तरह शान्त हो सकती है ! जैनमार्गका परमार्थ सच्चे गुरुसे समझना चाहिये । जिस गुरुको स्वार्थ हो वह अपना अकल्याण करता है और उससे शिष्योंका भी अकल्याण होता है।
जैनलिंग धारण कर जीव अनंतों बार भटका है—बाह्यवर्ती लिंग धारण कर लौकिक व्यवहारमें अनंतों बार भटका है । इस जगह वह जैनमार्गका निषेध करता नहीं । अंतरंगसे जो जितना सच्चा मार्ग बतावे वह · जैन ' है। नहीं तो अनादि कालसे जीवने झूठेको सच्चा माना है, और वही अज्ञान है। मनुष्य देहकी सार्थकता तभी है जब कि मिथ्या आग्रह-दुराग्रह-छोड़कर कल्याण होता हो । ज्ञानी सीधा ही बताता है । जब आत्मज्ञान प्रगट हो उसी समय आत्म-ज्ञानीपना मानना चाहियेगुण प्रगट हुए बिना उसे मानना यह भूल है । जवाहरातकी कीमत जाननेकी शक्तिके बिना जवेरीपना मानना नहीं चाहिए । अज्ञानी मिथ्याको सच्चा नाम देकर बाड़ा बँधवा देता है । यदि सत्की पहिचान हो तो किसी समय तो सत्यका ग्रहण होगा।
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आनंद, भाद्रपद १५ मंगल. जो जीव अपनेको मुमुक्षु मानता हो, पार होनेका अभिलाषी मानता हो, और उसे देहमें रोग होते समय आकुलता-व्याकुलता. होती हो, तो उस समय विचार करना चाहिये कि तेरी मुमुक्षुता-होशियारी