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मात्मसिदि ज्या प्रगटे मुविचारणा, त्यां प्रगटे निजज्ञान ।
जेशाने क्षय मोह थई, पामे पद निर्वाण ॥४१॥ जहाँ सुविचार-दशा प्रगट हो, वहीं आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, और उस ज्ञानसे मोहका क्षय कर जात्मा निर्वाण-पदको प्राप्त करती है।
उपजे ते मुविचारणा, मोक्षमार्ग समजाय ।
गुरुशिष्यसंवादयी, भालुं षट्पद आहि ॥ ४२ ॥ जिससे सुविचार-दशा उत्पन्न हो, और मोक्ष-मार्ग समझमें आ जाय, उस विषयको यहाँ षट् पदरूपसे गुरु-शिष्यके संवादरूपमें कहता हूँ। षट्पदनामकयन
आत्मा छ, ते नित्य छ, छ कर्ता निजकर्म ।
छ भोक्ता, वळी मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म॥४३॥ 'आत्मा है', 'वह आत्मा नित्य है', वह आत्मा अपने कर्मकी कर्ता है', 'वह कर्मकी भोक्ता है', ' उससे मोक्ष होती है', और ' उस मोक्षका उपायरूप सधर्म है ।*
पदस्थानक संक्षेपमा पदार्शन पण तेह ।
समजावा परमार्थने, कहां ज्ञानीए एह ॥४४॥ ये छह स्थानक अथवा छह पद यहाँ संक्षेपमें कहे हैं; और विचार करनेसे षट्दर्शन भी यही है। परमार्थ समझनेके लिये ज्ञानी-पुरुषने ये छह पद कहे हैं। १ शंका-शिष्य उवाचशिष्य आत्माके अस्तित्वरूप प्रथम स्थानकके विषयमें शंका करता है:
नथी दृष्टिमा आवतो, नयी जणातुं रूप ।
पीजो पण अनुभव नहीं, तेथी न जीवस्वरूप ॥४५॥ वह दृष्टिमें नहीं आता, और उसका कोई रूप भी मालूम नहीं होता । तथा स्पर्श आदि दूसरे अनुभवसे भी उसका ज्ञान नहीं होता, इसलिये जीवका निजरूप नहीं है, अर्थात् जीव नहीं है।
अथवा देह ज आतमा, अथवा इन्द्रिय माण।
मिथ्या जूदो मानवो, नहीं जूई एंधाण ॥ ४६॥ अथवा जो देह है वही आत्मा है; अथवा जो इन्द्रियाँ हैं वही आत्मा है; अथवा श्वासोच्छ्वास ही आत्मा है, अर्थात् ये सब एक एक करके देहस्वरूप हैं, इसलिये आत्माको भिन्न मानना मिथ्या है। क्योंकि उसका कोई भी मिन चिह दिखाई नहीं देता।
१ उपाध्याय यद्योविजयजीने 'सम्यक्त्वनां षट्स्थान-स्वरूपनी चौपाई' के नामसे गुजरातीम १२५ चौपाईयाँ लिखी है। उसमें जिस गाथाम सम्यक्त्वके षट्स्थानक बताये है, वह गाथा निमरूपसे है:- .
अस्थि जीवो तहा णिचो, कत्ता भुत्ताय पुण्णपावाणां ।
अस्थि धुर्व मिव्वाण तत्सोवामओ अहाणा ॥ * इसके विस्तृत विवेचन के लिये देखो अंक नं. ४.६. -अनुवादक.