________________
६६.]
उपदेश छाया अथवा निश्चयनय आहे, मात्र शब्दनी माय । .
लोपे सद्व्यवहारने, साधनरहित थाय ॥ २९ ॥ __ अथवा समयसार या योगवासिष्ठ जैसे ग्रन्थोंको बाँचकर जो केवल निश्चयनयको ही ग्रहण करता है। किस तरह ग्रहण करता है ! मात्र कथनरूपसे ग्रहण करता है। परन्तु जिसके अंतरंगमें तथारूप गुणकी कुछ भी स्पर्शना नहीं, और जो सद्गुरु, सत्शास्त्र तथा वैराग्य, विवेक आदि सदव्यवहारका लोप करता है, तथा अपने आपको ज्ञानी मानकर जो साधनरहित आचरण करता है-वह मतार्थी है।
ज्ञानदशा पाम्यो नहीं, साधनदशा न कांइ ।
पामे तेनो संग जे, ते बुडे भव मांहि ॥३०॥ वह जीव ज्ञान-दशाको नहीं पाता, और इसी तरह वैराग्य आदि साधन-दशा भी उसे नहीं हैं । इस कारण ऐसे जीवका यदि किसी दूसरे जीवको संयोग हो जाय तो वह जीव भी भव-सागरमें डूब जाता है।
ए पण जीव मतामा निजमानादि काज ।
पामे नही परमार्थने, अनअधिकारिमा ज ॥ ३१ ॥ यह जीव भी मतार्थमें ही रहता है। क्योंकि ऊपर कहे अनुसार जीवको जिस तरह कुलधर्म आदिसे मतार्थता रहती है, उसी तरह इसे भी अपनेको ज्ञानी मनवानेके मानकी इच्छासे अपने शुष्क मतका आग्रह रहता है । इसलिये वह भी परमार्थको नहीं पाता, और इस कारण वह भी अनधिकारी अर्थात् जिसमें ज्ञान प्रवेश होने योग्य नहीं, ऐसे जीवोंमें गिना जाता है ।
नहीं कषाय उपशांतता, नहीं अंतर्वैराग्य ।
सरळपणुं न मध्यस्थता, ए मतार्थी दुर्भाग्य ॥ ३२ ॥ जिसकी क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय कृश नहीं हुई; तथा जिसे अंतर्वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ, जिसे आत्मामें गुण ग्रहण करनेरूप सरलता नहीं है; तथा सत्य असत्यकी तुलना करनेकी जिसे पक्षपातरहित दृष्टि नहीं है, वह मतार्थी जीव भाग्यहीन है । अर्थात् जन्म, जरा, मरणका छेदन करनेवाले मोक्षमार्गके प्राप्त करने योग्य उसका भाग्य ही नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ।
लक्षण का मतार्थीना, मतार्य जावा काज ।
हवे कहुं आत्मार्थीना, भात्म-अर्थ मुखसाज ॥ ३३ ॥ इस तरह मतार्थी जीवके लक्षण कहे । उसके कहनेका हेतु यही है कि जिससे उन्हें जानकर जीवोंका मतार्थ दूर हो । अब आत्मार्थी जीवके लक्षण कहते हैं। वे लक्षण कैसे हैं ! कि आत्माको अव्याबाध सुखकी सामग्रीके हेतु हैं ।
आत्मा के लक्षण..आत्मज्ञान त्यां मुनिपणुं, ते साचा गुरु होय । ।
पाकी कुळगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहीं जोय ॥ ३४ ॥ जहाँ आत्म-बान हो वहीं मुनिपना होता है। अर्थात् जहाँ आत्म-बान नहीं वहाँ मुनिपना संभव