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श्रीमद् राजचन्द्र
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होय मतार्थी तेहने, थाय न आतमलक्ष ।
तेह मताथिलक्षणो, अहीं कां निर्पक्ष ॥ २३ ॥ जो मतार्थी जीव होता है, उसे आत्मज्ञानका लक्ष नहीं होता। ऐसे मतार्थी जीवके यहाँ निष्पक्ष होकर लक्षण कहते हैं। मता के लक्षण:
बाब त्याग पण ज्ञान नहीं, ते माने गुरु सत्य ।
अथवा निजकुळधर्मना, ते गुरुमां ज ममत्व ॥ २४ ॥ जो केवल बाह्यसे ही त्यागी दिखाई देता है, परन्तु जिसे आत्मज्ञान नहीं, और उपलक्षणसे जिसे अंतरंग त्याग भी नहीं है, ऐसे गुरुको जो सद्गुरु मानता है, अथवा अपने कुलधर्मका चाहे कैसा भी गुरु हो, उसमें ममत्व रखता है वह मतार्थी है।
जे जिनदेहप्रमाणने, समवसरणादि सिद्धि ।
वर्णन समजे जिननु, रोकी रहे निजबुद्धि ॥ २५ ॥ जिनभगवान्की देह आदिका जो वर्णन है, जो उसे ही जिनका वर्णन समझता है; और वे अपने कुलधर्मके देव हैं, इसलिये अहंभावके कल्पित रागसे जो उनके समवसरण आदि माहात्म्यको ही गाया करता है, और उसीमें अपनी बुद्धिको रोके रहता है-अर्थात् परमार्थ-हेतुस्वरूप ऐसे जिनका जो जानने योग्य अंतरंग स्वरूप है उसे जो नहीं जानता, तथा उसे जाननेका प्रयत्न भी नहीं करता, और केवल समवसरण आदिमें ही जिनका स्वरूप बताकर मतार्थमें प्रस्त रहता है-वह मतार्थी है ।
प्रत्यक्ष सद्गुरुयोगमा वर्ने दृष्टि विमुख ।
असद्गुरुने दृढ करे, निजमानार्थे मुख्य ॥ २६ ॥ प्रत्यक्ष सद्गुरुका कभी योग मिले भी तो दुराग्रह आदिके नाश करनेवाली उनकी वाणी सुनकर, जो उससे उल्टा ही चलता है, अर्थात् उस हितकारी वाणीको जो ग्रहण नहीं करता; और वह स्वयं सच्चा दृढ़ मुमुक्षु है,'इस मानको मुख्यरूपसे प्राप्त करनेके लिये ही असगरुके पास जाकर, जो स्वयं उसके प्रति अपनी विशेष दृढ़ता बताता है-वह मतार्थी है।
देवादि गति भंगमा, जे समजे श्रुतज्ञान ।
माने निज मतवेषनो, आग्रह मुक्तिनिदान ॥ २७॥ . देव नरक आदि गतिके : भंग' आदिका जो स्वरूप किसी विशेष परमार्थके हेतुसे कहा है, उस हेतुको जिसने नहीं जाना, और उस भंगजालको ही जो श्रुतज्ञान समझता है; तथा अपने मतकावेषका—आग्रह रखनेको ही मुक्तिका कारण मानता है-वह मतार्थी है।
लहुं स्वरूप न वृत्तिनु, प्रयुं व्रत अभिमान ।
अहे नहीं परमार्थने. लेवा लौकिक मान ॥२८॥ वृत्तिका स्वरूप क्या है ! उसे भी जो नहीं जानता, और 'मैं व्रतधारी हूँ' ऐसा अभिमान जिसने धारण कर रक्खा है । तथा यदि कभी परमार्थके उपदेशका योग बने भी, तो 'लोकमें जो अपना मान और पूजा सत्कार आदि है वह चला जायगा, अथवा वे मान आदि फिर पीछेसे प्राप्त न होंगे'ऐसा समझकर, जो परमार्थको प्रहण नहीं करता वह मतार्थी है।