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५९४ श्रीमद् राजचन्द्र
[६६. समागम मिलनेपर भी, 'उसमें परोक्ष जिनभगवान्के वचनोंकी अपेक्षा भी महान् उपकार समाया हुआ है,' इस बातको नहीं समझता, तबतक उसे आत्म-विचार उत्पन्न नहीं होता।
सदरुना उपदेशवण, समजाय न जिनरूप ।
समज्यावण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप ॥ १२ ॥ सद्रुके उपदेशके बिना जिनका स्वरूप समझमें नहीं आता, और उस स्वरूपके समझमें आये बिना उपकार भी क्या हो सकता है ! यदि जीव सद्गुरुके उपदेशसे जिनका स्वरूप समझ जाय तो समझनेवालेकी आत्मा अन्तमें जिनकी दशाको ही प्राप्त करे ॥
सद्गुरुना उपदेशथी, समजे जिन- रूप । तो ते पामे निजदशा, जिन छे आत्मस्वरूप । पाम्या शुद्धस्वभावने, छे जिन तेथी पूज्य ।
समजो जिनस्वभाव तो, आत्मभावनो गुज्य ॥ सद्गुरुके उपदेशसे जो जिनका स्वरूप समझ जाता है, वह अपने स्वरूपकी दशाको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि शुद्ध आत्मभाव ही जिनका स्वरूप है । अथवा राग द्वेष और अज्ञान जो जिनभगवान्में नहीं, वही शुद्ध आत्मपद है, और वह पद तो सत्तासे सब जीवोंको मौजूद है । वह सदर-जिनके अवलम्बनसे और जिनभगवान्के स्वरूपके कथनसे मुमुक्षु जीवको समझमें आता है ।
आत्मादि अस्तित्वनां, जेह निरूपक शास्त्र।
प्रत्यक्ष सदरुयोग नहीं, त्यां आधार सुपात्र ॥ १३ ॥ जो जिनागम आदि आत्माके अस्तित्वके तथा परलोक आदिके अस्तित्वके उपदेश करनेवाले शान हैं वे भी, जहाँ प्रत्यक्ष सद्गुरुका योग न हो वहीं सुपात्र जीवको आधाररूप हैं; परन्तु उन्हें सद्गुरुके समान भ्रांति दूर करनेवाला नहीं कहा जा सकता।
__ अथवा सद्गुरुए कहां, जे अवगाहन काज ।
ते ते नित्य विचारवां, करी मतांतर त्याज ॥ १४ ॥ __ अथवा यदि सद्गरुने उन शाखोंके विचारनेकी आज्ञा दी हो, तो उन शास्त्रोंको, मतांतर अर्थात् कुलधर्मके सार्थक करनेके हेतु आदि भ्रान्तिको छोड़कर, केवल आत्मार्थके लिये ही नित्य विचारना चाहिये।
रोके जीव स्वछंद तो, पामे अवश्य मोक्ष।
पाम्या एम अनंत छ, भाख्युं जिन निर्दोष ॥ १५॥ जीव अनादिकालसे जो अपनी चतुराईसे और अपनी इच्छासे चलता आ रहा है, इसका नाम खच्छंद है। यदि वह इस स्वच्छंदको रोके, तो वह जरूर मोक्षको पा जाय; और इस तरह भूतकालमें अनंत जीवोंने मोक्ष पाया है-ऐसा राग द्वेष और अज्ञानमेंसे जिनके एक भी दोष नहीं, ऐसे निदोष वीतरागने कहा है।