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६६.1 मात्मसिदि
६०१ विषयका ज्ञान होता है अर्थात् जो उन पाँच इन्द्रियोंसे ग्रहण किये हुए विषयको जानता है, वह आत्मा है; और ऐसा जो कहा है कि आत्माके बिना प्रत्येक इन्द्रिय एक एक विषयको ग्रहण करती है, वह केवल उपचारसे ही कहा है।
देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्रिय प्राण ।
आत्मानी सत्तावडे, तेह प्रवर्ते जाण ॥ ५३ ॥ उसे न तो देह जानती है,न इन्द्रियाँ जानती हैं, और न श्वासोच्छ्वासरूप प्राण ही उसे जानता है। वे सब एक आत्माकी सत्तासे ही प्रवृत्ति करते हैं, नहीं तो वे जरूप ही पड़े रहते हैं-तू ऐसा समझ।
सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय ।
प्रगटरूप चैतन्यमय, ए एंधाणे सदाय ॥ ५४॥ जाग्रत स्वप्न और निद्रा अवस्थाओंमें रहनेपर भी वह उन सब अवस्थाओंसे भिन्न रहा करता है, और उन सब अवस्थाओंके बीत जानेपर भी उसका अस्तित्व रहता है । वह उन सब अवस्थाओंको जाननेवाला प्रगटस्वरूप चैतन्यमय है, अर्थात् जानते रहना ही उसका स्पष्ट स्वभाव है; और उसकी यह निशानी सदा ही रहती है—उस निशानीका कभी भी नाश नहीं होता।
घट पट आदि जाण तुं, तेथी तेने मान ।
जाणनार ते मान नहीं, कहिये केवु ज्ञान ॥ ५५ ॥ घट पट आदिको तू स्वयं ही जानता है, और तू समझता है कि वे सब मौजूद हैं, तथा जो घट पट आदिका जाननेवाला है, उसे तू मानता नहीं--तो उस ज्ञानको फिर कैसा कहा जाय !
परमबुद्धि कृष देहमां, स्थूळ देह मति अल्प।
देह होय जो आतमा, घटे न आम विकल्प ॥ ५६ ॥ दुर्बल देहमें तीक्ष्ण बुद्धि और स्थूल देहमें अल्प बुद्धि देखनेमें आती है। यदि देह ही आत्मा हो तो इस शंका-विरोध-के उपस्थित होनेका अवसर ही नहीं आ सकता ।
जड चेतननो भित्र छ, केवळ प्रगट स्वभाव ।
एकपणुं पामे नहीं, त्रणे काळ द्वय भाव ॥ ५७ ॥ किसी कालमें भी जिसमें जाननेका स्वभाव नहीं वह जड़ है, और जो सदा ही जाननेके स्वभावसे युक्त है वह चेतन है—इस तरह दोनोंका सर्वथा भिन्न भिन्न स्वभाव है; और वह किसी भी प्रकार एक नहीं हो सकता । तीनों कालमें जड़ जहरूपसे और चेतन चेतनरूपसे ही रहता है । इस तरह दोनोंका ही भिन्न भिन्न द्वैतभाव स्पष्ट अनुभवमें आता है।
__ आत्मानी शंका करे, आत्मा पोते आप।
शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप ॥ ५८॥ *आत्मा स्वयं ही आत्माकी शंका करती है। परन्तु जो शंका करनेवाला है वही आत्मा हैइस बातको आत्मा जानती नहीं, यह एक असीम आश्चर्य है।
• शंकराचार्यकी भी आत्माके अस्तित्वमें यही प्रसिद्ध युक्ति है
सो हि आत्मास्तित्वम् प्रत्येति, न नाहमस्मीति । य एव हि निराकर्ता तदेव तस्य स्वरूपम् । - फ्रान्सके विचारक रेकार्ट (Descarte) ने भी यही लिखा है-cogito ergo sunn-I am because I exist-अर्थात् मैं हूँ क्योंकि मैं मौजूद हूँ। -अनुवादक.
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