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१४४, ६४९, ६५.] विविधपत्र मादि संग्रह-२९वा वर्ष
५८१ दूसरी नीच जातियाँ अथवा मुसलमानों आदिके किसी वैसे निमंत्रणों में अन्न आहार आदिके बदले, न पकाये हुए फलाहार आदि लेनेसे उन लोगोंके उपकारकी रक्षा संभव हो, तो उस तरह आचरण करना योग्य है।
६४८ जीवकी व्यापकता, परिणामीपना, कर्मसंबंध, मोक्ष-क्षेत्र ये किस किस प्रकारसे घट सकते हैं ! उसके विचारे बिना तथारूप समाधि नहीं होती।
गुण और गुणीका भेद समझना किस प्रकार योग्य है !
जीवकी व्यापकता, सामान्य-विशेषात्मकता, परिणामीपना, लोकालोक-ज्ञायकता, कर्मसंबंध, मोक्ष-क्षेत्र, यह पूर्वापर अविरोधसे किस तरह सिद्ध होता है !
एक ही जीव नामक पदार्थको जुदे जुदे दर्शन, सम्प्रदाय और मत भिन्न भिन्न स्वरूपसे कहते हैं। उसके कर्मसंबंधका और मोक्षका भी भिन्न भिन्न स्वरूप कहते हैं, इस कारण निर्णय करना कठिन क्यों नहीं है?
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आत्मसाधन. द्रव्यः-मैं एक हूँ, असंग हूँ, सर्व परभावसे मुक्त हूँ।... क्षेत्रः-मैं असंख्यात निज-अवगाहना प्रमाण हूँ। काल:--मैं अजर, अमर, शाश्वत हूँ। स्वपर्याय-परिणामी समयात्मक हूँ भावः.-मैं शुद्ध चैतन्यमात्र निर्विकल्प द्रष्टा हूँ।
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वचन संयममनो संयमकाय संयम
वचन संयम. मनो संयम. काय संयम.
वचन संयममनो संयमकाय संयमकाय संयम
इन्द्रिय-संक्षेप,
इन्द्रिय-स्थिरता, वचन संयम
मौन, वचन-संक्षेप,
आसन-स्थिरता, सोपयोग यथासूत्र प्रवृत्ति.
सोपयोग यथासूत्र प्रवृत्ति
वचन-गुणातिशयता..
व
मनो संयम
मनो संक्षेप,
मनःस्थिरता.
मात्मचिंतन,
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मनःस्थिरता.