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आत्मसिद्धि
६६० श्री नडियाद, आसोज वदी १ गुरु. १९५२
श्रीआत्मसिद्धिशास्त्र
श्रीसद्गुरुचरणाय नमः जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत । .
समजान्यु ते पद नसु, श्रीसद्गुरु भगवंत ॥१॥ . जिस आत्मस्वरूपके समझे बिना, भूतकालमें मैंने अनंत दुःख भोगे, उस स्वरूपको जिसने समझाया—अर्थात् भविष्यकालमें उत्पन्न होने योग्य जिन अनंत दुःखोंको मैं प्राप्त करता, उसका जिसने मूल ही नष्ट कर दिया-ऐसे श्रीसद्गुरु भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ।
वर्तमान आ काळमां, मोक्षमार्ग बहु लोप ।
विचारवा आत्मार्थिने, भाख्यो अत्र अगोप्य ॥२॥ इस वर्तमानकालमें मोक्ष-मार्गका बहुत ही लोप हो गया है । उस मोक्षके मार्गको, आत्मार्थी जीवोंके विचारनेके लिये, हम यहाँ गुरु-शिष्यके संवादरूपमें स्पष्टरूपसे कहते हैं।
कोई क्रियाजड थइ रखा, शुष्कज्ञानमां कोई।
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोइ ॥३॥ - कोई तो क्रियामें लगे हुए हैं, और कोई शुष्क ज्ञानमें लगे हुए हैं; और इसी तरह वे मोक्षमार्गको भी मान रहे हैं उन्हें देखकर दया आती है।
बाथ क्रियामा राचतां, अंतर्भेद न कांइ ।
ज्ञानमार्ग निषेधतां, तेह क्रियाजड ओहि ॥४॥ ..जो मात्र बाह्य क्रियामें ही रचे पड़े हैं, जिनके अंतरमें कोई भी भेद उत्पन्न नहीं हुआ, और जो ज्ञान-मार्गका निषेध किया करते हैं, उन्हें यहाँ क्रिया-जड़ कहा है। . . बंध मोक्ष छे कल्पना, भाखे वाणीमहि। . . .
वर्ने मोहावेशमा शुष्कज्ञानी ते हि ॥५॥ बंध और मोक्ष केवल कल्पना मात्र है-इस निश्चय वाक्यको जो केवल वाणीसे ही बोला करता है, और तथारूप दशा जिसकी हुई नहीं, और जो मोहके प्रभावमें ही रहता है, उसे यहाँ शुष्क-ज्ञानी कहा है। ...* श्रीमद् राजचन्द्रने आत्मसिद्धि' की पद्य-बद्ध रचना भी सोभाग्य, भी अचल आदि मुमुक्षु, तथा मन्य जीवोंके हितके लिये की थी। यह निम्न पद्यसे विदित होता है:
श्री सोमाग्य अने भी अचल, आदि मुमुक्षु काज। ।
तथा भव्य हित कारणे, कमो बोष सुखकाज ॥ -आस्मसिद्धिके इन पोका संक्षिप्त विवेचन भाई अंबालाल लालचन्दने किया है, जो श्रीमद्की दृधिमें आ चुका है। तथा किसी किसी पर्वका जो विस्तृत विवेचन दिया है, वह स्वयं श्रीमद्का लिखा. हुमा है, जिसे उन्होंने पत्रोंके रूपमें समय समयर लिखा।-अनुवादक.