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१५४, ५५५, ६५६, ६५७] विविध पत्र मादि संग्रह-२९वौं वर्ष
६५४ सोऽहं ( आश्चर्यकारक.) महापुरुषोंने गवेषणा की है।
कल्पित परिणतिसे जीवका विराम लेना जो इतना अधिक कठिन हो गया है, उसका हेतु क्या होना चाहिये !
आत्माके ध्यानका मुख्य प्रकार कौनसा कहा जा सकता है ! उस ध्यानका स्वरूप किस तरह है !
केवलज्ञानका जिनागममें जो प्ररूपण किया है वह यथायोग्य है ! अथवा वेदान्तमें जो प्ररूपण किया है वह यथायोग्य है!
प्रेरणापूर्वक स्पष्ट गमनागमन क्रियाका आत्माके असंख्यात प्रदेश प्रमाणत्वके लिये विशेष विचार करना चाहिये।
प्रश्नः-परमाणुके एक प्रदेशात्मक और आकाशके अनंत प्रदेशात्मक माननेमें जो हेतु है, वह हेतु आत्माके असंख्यात प्रदेशत्वके लिये याथातथ्य सिद्ध नहीं होता। क्योंकि मण्यम-परिणामी वस्तु अनुत्पन्न देखनेमें नहीं आती।
उत्तरः
६५६ अमूर्तत्वकी क्या व्याख्या है। अनंतत्वकी क्या व्याख्या है ! आकाशका अवगाहक-धर्मत्व किस प्रकार है!
मूर्तामर्तका बंध यदि आज नहीं होता तो वह अनादिसे कैसे हो सकता है ! वस्तुस्वभाव इस प्रकार अन्यथा किस तरह माना जा सकता है !
क्रोध भादि भाव जीवमें परिणामीरूपसे हैं या निवृत्तिरूपसे हैं!
यदि उन्हें परिणामीरूपसे कहें तो वे स्वाभाविक धर्म हो जॉय, और स्वाभाविक धर्मका दूर होना कहीं भी अनुमवमें आता नहीं ।
यदि उन्हें निवृत्तिरूपसे समझे तो जिस प्रकारसे जिनभगवान्ने साक्षात् बंध कहा है, उस रह माननेमें विरोध आना संभव है।
जिनमगवान्के अनुसार केवदर्शन, और वेदान्त के अनुसार प्रम इन दोनोंमें क्या भेद है।