________________
६६.]
मात्मसिद्धि अर्थात् वह अज्ञानपूर्वक त्याग-वैराग्य आदि होनेसे, पूजा-सत्कार आदिसे पराभव पाकर आत्मार्थको ही भूल जाता है।
जिसके अंतःकरणमें त्याग-वैराग्य आदि गुण उत्पन्न नहीं हुए, ऐसे जीवको आत्मज्ञान नहीं होता । क्योंकि जैसे मलिन अंतःकरणरूप दर्पणमें आत्मोपदेशका प्रतिबिम्ब पड़ना संभव नहीं, उसी तरह केवल त्याग-वैराग्यमें रचा-पचा रहकर जो कृतार्थता मानता है, वह भी अपनी आत्माका भान भूल जाता है । अर्थात् आत्मज्ञान न होनेसे उसे अज्ञानका साहचर्य रहता है, इस कारण उस त्याग-वैराग्य आदिका मान उत्पन्न करनेके लिए, और उस मानके लिये ही, उसकी सर्व संयम आदिकी प्रवृत्ति हो जाती है, जिससे संसारका उच्छेद नहीं होता। वह केवल उसीमें उलझ जाता है। अर्थात् वह आत्मज्ञानको प्राप्त नहीं करता।
इस तरह क्रिया-जड़को साधन-क्रिया-और उस साधनकी जिससे सफलता हो, ऐसे आत्मज्ञानका उपदेश किया है; और शुष्क-ज्ञानीको त्याग-वैराग्य आदि साधनका उपदेश करके केवल वचन-ज्ञानमें कल्याण नहीं, ऐसी प्रेरणा की है।
ज्या ज्यां जे जे योग्य छ, तहां समजवू तेह ।
त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन एह ॥८॥ जहाँ जहाँ जो योग्य है, वहाँ वहाँ उसे समझे और वहाँ वहाँ उसका आचरण करे, यह आत्मार्थी पुरुषका लक्षण है।
जिस जगह जो योग्य है अर्थात् जहाँ त्याग-वैराग्य आदि योग्य हों, वहाँ जो त्याग-वैराग्य आदि समझता है; और जहाँ आत्मज्ञान योग्य हो वहाँ आत्मज्ञान समझता है--इस तरह जो जहाँ योग्य है उसे वहाँ समझता है, और वहाँ तदनुसार प्रवृत्ति करता है-वह आत्मार्थी जीव है । अर्थात् जो कोई मतार्थी अथवा मानार्थी होता है, वह योग्य मार्गको ग्रहण नहीं करता । अथवा क्रियामें ही जिसे दुराग्रह हो गया है, अथवा शुष्क ज्ञानके अभिमानमें ही जिसने ज्ञानीपना मान लिया है, वह त्यागवैराग्य आदि साधनको अथवा आत्मज्ञानको ग्रहण नहीं कर सकता।
जो आत्मार्थी होता है, वह जहाँ जहाँ जो जो करना योग्य है, उस सबको करता है, और जहाँ जहाँ जो जो समझना योग्य है उस सबको समझता है। अथवा जहाँ जहाँ जो जो समझना योग्य है, जो उस सबको समझता है, और जहाँ जो जो आचरण करना योग्य है, उस सबका आचरण करता है--वह आत्मार्थी कहा जाता है।
यहाँ ' समझना' और 'आचरण करना' ये दो सामान्य पद हैं। परन्तु यहाँ दोनोंको अलग अलग कहनेका यह भी आशय है कि जो जो जहाँ जहाँ समझना योग्य है उस सबको समझनेकी, और जो जो जहाँ आचरण करना योग्य है उस सबको वहाँ आचरण करनेकी जिसकी कामना है-वह भी आत्मार्थी कहा जाता है।
सेवे सगुरु चरणने, त्यागी दई निजपक्ष ।
पामे ते परमार्थने, निजपदनो के लक्ष ॥९॥ अपने पक्षको छोड़कर जो सद्गुरुके चरणकी सेवा करता है, वह परमार्थको पाता है, और उसे आत्मस्वरूपका लक्ष होता है।