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विविधपत्र मादि संग्रह-२९याँ वर्ष
आत्मार्थके विचारनेमें उससे क्रम क्रमसे सुलभता होती है। श्री. को जो ब्याख्यान करना होता है, उससे जो अहंभाव आदिका भय रहता है, वह संभव है।
जिसने सद्गुरुविषयक तथा उनकी दशाविषयक विशेषता समझ ली है, उसको उस तरहके प्रसंगके समान दूसरे प्रसंगोंमें प्रायः करके अहंभाव उदय नहीं होता, अथवा वह तुरत ही शान्त हो जाता है। उस अहंभावको यदि पहिले ज़हरके समान समझा हो तो वह पूर्वापर कम संभव होता है। तथा कुछ कुछ अंतरमें चातुर्य आदि भावसे, सूक्ष्म परिणतिसे भी, उसमें मिठास रक्खी हो तो वह पूर्वापर विशेषता प्राप्त करता है । परन्तु 'वह ज़हर ही है-निश्चयसे ज़हर ही है-स्पष्ट कालकूट ज़हर है, इसमें किसी तरह भी संशय नहीं; और यदि संशय हो तो संशय मानना नहीं, उस संशयको अज्ञान ही समझना चाहिये'-ऐसी तीव्र खाराश कर डाली हो तो वह अहंभाव प्रायः बल नहीं कर सकता।
कदाचित् उस अहंभावके रोकनेसे निरहंभाव हुआ हो तो भी उसका फिरसे अहंभाव हो जाना संभव है। उसे भी पहिलेसे जहर, और ज़हर ही मानकर प्रवृत्ति की हो तो आत्मार्थको बाधा नहीं होती।
६४७ श्रीआनन्द आसोज, सुदी ३ शुक्र. १९५२ आत्माथी भाई मोहनलालके प्रति डरबन, तुम्हारा लिखा हुआ पत्र मिला था । यहाँ उसका संक्षिप्त उत्तर लिखा है ।
जान पड़ता है कि नैटालमें रहनेसे तुम्हारी बहुतसी सद्वृत्तियोंमें विशेषता आ गई है। परन्तु उसमें तुम्हारी उस तरह प्रवृत्ति करनेकी उत्कृष्ट इच्छा ही कारणभूत है। राजकोटकी अपेक्षा नैटाल ऐसा क्षेत्र जरूर है कि जो बहुतसी बातोंमें तुम्हारी वृत्तिका उपकारक हो सकता है, यह माननेमें हानि नहीं है। क्योंकि तुम्हारी सरलताकी रक्षा करनेमें जिससे निजी विघ्नोंका भय रह सके, ऐसे प्रपंचमें अनुसरण करनेका दबाव नैटालमें विशेष करके नहीं है। परन्तु जिसकी सद्वृत्तियाँ विशेष बलवान न हों अथवा निर्बल हों, और उसे इंगलैंड आदि देशमें स्वतंत्रतासे रहना हो तो उसे अभक्ष आदिसंबंधी दोष लग सकता है, ऐसा मालूम होता है । जैसे तुम्हें नैटाल क्षेत्रमें प्रपंचका विशेष संयोग न होनेसे, तुम्हारी सवृत्तियाँ विशेषताको प्राप्त हुई हैं, वैसे राजकोट जैसी जगहमें होना कठिन हो, यह यथार्थ मालूम होता है। परन्तु किसी श्रेष्ठ आर्यक्षेत्रमें सत्संग आदि योगमें तुम्हारी वृत्तियोंका नैटालकी अपेक्षा भी विशेषता प्राप्त करना संभव है। तुम्हारी वृत्तियोंको देखते हुए, नैटाल तुम्हें अनार्य क्षेत्ररूपसे असर कर सके, प्रायः ऐसी मेरी मान्यता नहीं। परन्तु वहाँ सत्संग आदि योगकी विशेष करके प्राप्ति न होनेसे कुछ आत्मनिराकरण न होनेरूप हानि मानना कुछ विशेष योग्य लगता है।
यहाँसे जो 'आर्य आचार-विचार' के सुरक्षित रखनेके संबंधमें लिखा था, उसका भावार्थ यह था:-आर्य-आचार अर्थात् मुख्यरूपसे दया, सत्य, क्षमा आदि गुणोंका आचरण करना; और आर्य-विचार अर्थात् मुख्यरूपसे आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व, वर्तमानकालमें उस स्वरूपका अज्ञान, तथा उस अज्ञान और भान न होनेके कारण, उन कारणोंकी निवृत्ति और वैसा होनेसे अन्याबाध आनन्दस्वरूप भानरहित निजपदमें स्वाभाविक स्थिति होना-इन सबका विचार करना । इस तरह संक्षेपसे मुख्य अर्थको लेकर उन शब्दोंको लिखा है। .. .. .