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६४] विविधपत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष
६४४ मनःपर्यवज्ञान किस तरह प्रगट होता है !
साधारणतया प्रत्येक जीवको मतिज्ञान ही होता है । उसके आश्रयभूत श्रुतज्ञानमें वृद्धि होनेसे उस मतिज्ञानका बल बढ़ता है । इस तरह अनुक्रमसे मतिज्ञानके निर्मल होनेसे आत्माका असंयमभाव दूर होकर संयमभाव उत्पन्न होता है, और उससे मनःपर्यवज्ञान प्रगट होता है। उसके संबंधसे आत्मा दूसरेके अभिप्रायको जान सकती है।
किसी ऊपरके चिह्नके देखनेसे दूसरेके जो क्रोध हर्ष आदि भाव जाने जाते हैं, वह मतिज्ञानका विषय है । तथा उस तरहका चिह्न न होनेपर जो भाव जाने जाते हैं, वह मनःपर्यवज्ञानका विषय है।
आनन्द, आसोज सुदी १, १९५२
६४५ .. मूलमार्गरहस्य
श्रीसद्गुरुचरणाय नमः अरे, यदि पूजा आदिकी कामना न हो, अंतरका संसारका दुःख प्रिय न हो, तो अखंड वृत्तिको सन्मुख करके जिनभगवान्के मूलमार्गको सुनो ॥१॥
जिनसिद्धान्तका शोधन कर जो कुछ जिन-वचनकी तुलना की है, उसे केवल परमार्थ-हेतुसे ही कहना है । उसके रहस्यको कोई मुमुक्षु ही पाता है । जिनभगवान्के मूलमार्गको सुनो ॥२॥
एकरूप और अविरुद्ध जो ज्ञान दर्शन और चारित्रकी शुद्धता है, वही परमार्थसे जिनमार्ग है, ऐसा पंडितजनोंने सिद्धांतमें कहा है । जिनभगवान्के मूलमार्गको सुनो ॥ ३॥
__ जो चारित्रके लिंग और भेद कहे हैं, वे सब द्रव्य, देश, काल आदिकी अपेक्षाके भेदसे ही हैं । परन्तु जो ज्ञान आदिकी शुद्धता है वह तो तीनों कालमें भेदरहित है । जिनभगवान्के मूलमार्गको सुनो ॥१॥
अब ज्ञान दर्शन आदि शब्दोंका संक्षेपसे परमार्थ सुनो। उसे समझकर विशेषरूपसे विचारनेसे उत्तम आत्मार्थ समझमें आवेगा । जिनभगवान्के मूलमार्गको सुनो ॥५॥
६४५ मूळ मारग सामळो जिननो रे, करी वृत्ति अखंड सम्मुख । मूळ. नोय पूजादिनी जो कामना रे, नोय व्हालु अंतर् भवदुख । मूळ• ॥ १॥ करी जो जो वचननी तुलनारे, जो जो शोधिने जिनसिद्धांत । मूळ. मात्र कहे परमारय हेतुयी रे, कोई पामे मुमुक्षु वात | मूळ ॥२॥ शान दर्शन चारित्रनी शुद्धतारे, एकपणे अने अविरुद्ध । मूळ. जिनमारग ते परमार्थथीरे, एम कई सिद्धांते बुद्ध । मूळ ॥३॥ लिंग अने भेदो जे वृत्तना रे, द्रव्य देश काळादि भेद । मूळ. पण ज्ञानादिनी जे शुद्धता रे, ते तो त्रणे काळे अभेद । मूळ ॥४॥ हवे शान दर्शनादि शब्दनो रे, संक्षेपे शुणो परमार्थ । मूळ. तेने जोता विचारि विशेषयी रे, समजाशे उत्तम मारमार्य । मूल•॥५॥