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उपदेश-छाया आत्माको पुत्र भी नहीं होता और पिता भी नहीं होता । जो इस तरहकी कल्पनाको सत्य मान बैठा है वह मिथ्यात्वी है । कुसंगसे समझमें नहीं आता, इसलिये समकित नहीं आता । सत्पुरुषके संगसे योग्य जीव हो तो सम्यक्त्व होता है ।
समकित और मिथ्यात्वकी तुरत ही खबर प जाती है । समकिती और मिथ्यात्वीकी वाणी घड़ी घड़ीमें जुदी पड़ती है । ज्ञानीकी वाणी एक ही धारायुक्त पूर्वापर मिलती चली आती है । जब अंतरंग गाँठ खुले उसी समय सम्यक्त्व होता है। रोगको जान ले, रोगकी दवा जान ले, पथ्यको जान ले और तदनुसार उपाय करे तो रोग दूर हो जाय । रोगके जाने बिना अज्ञानी जो उपाय करता है उससे रोग बढ़ता ही है । पथ्य सेवन करे और दवा करे नहीं, तो रोग कैसे मिट सकता है ! अर्थात् नहीं मिट सकता । तो फिर यह तो रोग कुछ और है, और दवा कुछ और है ! कुछ शास्त्र तो ज्ञान कहा नहीं जाता । ज्ञान तो उसी समय कहा जाता है जब अंतरंगसे गाँठ दूर हो जाय । तप संयम आदिके लिये सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण करना बताया गया है।
ज्ञानी भगवान्ने कहा है कि साधुओंको अचित्त आहार लेना चाहिये । इस कथनको तो बहुतसे साधु भूल ही गये हैं | दूध आदि सचित्त भारी भारी पदार्थोंका सेवन करके ज्ञानीकी आज्ञाके ऊपर पाँव देकर चलना कल्याणका मार्ग नहीं । लोग कहते हैं कि वह साधु है, परन्तु आत्म-दशाकी जो साधना करे वही तो साधु है।
नरसिंहमहेता कहते हैं कि अनादिकालसे ऐसे ही चलते चलते काल बीत गया, परन्तु निस्तारा हुआ नहीं। यह मार्ग नहीं है, क्योंकि अनादिकालसे चलते चलते भी मार्ग हाथ लगा नहीं । यदि मार्ग यही होता तो अबतक कुछ भी हाथमें नहीं आया-ऐसा नहीं हो सकता था । इसलिये मार्ग कुछ भिन्न ही होना चाहिये ।
तृष्णा किस तरह घटती है ! लौकिक भावमें मान-बड़ाई त्याग दे तो। 'घर-कुटुम्ब आदिका मुझे करना ही क्या है ! लोकमें चाहे जैसे हो, परन्तु मुझे तो मान-बड़ाईको छोड़कर चाहे किसी भी प्रकारसे, जिससे तृष्णा कम हो वैसा करना है। ऐसा विचार करे तो तृष्णा घट जाय-मंद पड़ जाय।
तपका अभिमान कैसे घट सकता है ! त्याग करनेका उपयोग रखनेसे । 'मुझे यह अभिमान क्यों होता है। इस प्रकार रोज विचार करनेसे अभिमान मंद पड़ेगा।
ज्ञानी कहता है कि जीव यदि कुंजीरूपी ज्ञानका विचार करे तो अज्ञानरूपी ताला खुल जाय-कितने ही ताले खुल जॉय । यदि कुंजी हो तो ताला खुलता है, नहीं तो हथौड़ी मारनेसे तो ताला टूट ही जाता है।
'कल्याण न जाने क्या होगा' ऐसा जीवको बहम है । वह कुछ हाथी घोड़ा तो है नहीं। जीवको ऐसी ही भ्रान्तिके कारण कल्याणकी कुंजियाँ समझमें नहीं आती । समझमें आ जाय तो सब मुगम है । जीवकी भ्रान्ति दूर करनेके लिये जगत्का वर्णन किया है। यदि जीव हमेशाके अंधमार्गसे थक जाय तो मार्गमें आ जाय ।