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५७४ श्रीमद् राजचन्द्र
[६४१ कहाँ चली गई ! जो पार होनेका अभिलाषी हो वह तो देहको असार समझता है-देहको आत्मासे भिन्न मानता है-उसे आकुलता आनी चाहिये ही नहीं । देहकी संभाल करते हुए वह संभाली जाती नहीं, क्योंकि वह उसी क्षणमें नाश हो जाती है-उसमें क्षणभरमें रोग, क्षणभरमें वेदना हो जाती है। देहके संगसे देह दुःख देती है, इसलिये आकुलता-व्याकुलता होती है, वही अज्ञान है । शास्त्र श्रवण कर रोज रोज सुना है कि देह आत्मासे भिन्न है-क्षणभंगुर है, परन्तु देहको यदि वेदना हो तो यह जीव राग-द्वेष परिणामसे शोर-गुल मचाता है। तो फिर, देह क्षणभंगुर है, यह तुम शास्त्रमें सुनने जाते किस लिये हो ? देह तो तुम्हारे पास है तो अनुभव करो । देह स्पष्ट मिट्टी जैसी है-वह रक्खा हुई रक्खी नहीं जा सकती। वेदनाका वेदन करते हुए कोई उपाय चलता नहीं। अब फिर किसकी संभाल करें! कुछ भी नहीं बन सकता । इस तरह देहका प्रत्यक्ष अनुभव होता है, तो फिर उसकी ममता करके क्या करना ! देहका प्रगट अनुभव कर शास्त्रमें कहा है कि वह अनित्य है-देहमें मूर्छा करना योग्य नहीं।
___ जबतक देहमें आत्मबुद्धि दूर न हो तबतक सम्यक्त्व नहीं होता । जीवको सचाई कभी आई ही नहीं; यदि आई होती तो मोक्ष हो जाती। भले ही साधुपना, श्रावकपना अथवा चाहे जो स्वीकार कर लो, परन्तु सचाई बिना सब साधन वृथा हैं । देहमें आत्मबुद्धि दूर करनेके जो साधन बतायें हैं वे साधन, देहमें आत्मबुद्धि दूर हो जाय तभी सच्चे समझे जाते हैं । देहमें जो आत्मबुद्धि हुई है उसे दूर करनेके लिये, अपनेपनको त्यागनेके लिये साधन करने आवश्यक हैं । यदि वह दूर न हो तो साधुपना, श्रावकपना, शाखश्रवण अथवा उपदेश सब कुछ अरण्यरोदनके समान है | जिसे यह भ्रम दूर हो गया है, वही साधु, वही आचार्य और वही ज्ञानी है । जैसे कोई अमृतका भोजन करे तो वह छिपा हुआ नहीं रहता, उसी तरह भ्रांतिका दूर होना किसीसे छिपा हुआ रहता नहीं।
लोग कहते हैं कि समकित है या नहीं, उसे केवलज्ञानी जाने । परन्तु जो स्वयं आत्मा है वह उसे क्यों नहीं जानती! आत्मा कुछ गाँव तो चली ही नहीं गई । अर्थात् समकित हुआ है, इसे आत्मा स्वयं ही जानती है । जैसे किसी पदार्थके खानेपर वह अपना फल देता है, उसी तरह समकितके होनेपर भ्रान्ति दूर हो जानेपर उसका फल आत्मा स्वयं ही जान लेती है । ज्ञानके फलको ज्ञान देता ही है। पदार्थक फलको पदार्थ, अपने लक्षणके अनुसार देता ही है । आत्मामेंसे--अन्तरमेंसे-यदि कर्म जानेको तैय्यार हुए हों, तो उसकी अपनेको-खबर क्यों न पड़े! अर्थात् खबर पड़ती ही है । समकितीकी दशा छिपी हुई नहीं रहती । कल्पित समकितको समकित मानना, पीतलकी कंठीको सोनेकी कंठी माननेके समान है।
समकित हुआ हा तो देहमें आत्मबुद्धि दूर होती है। यद्यपि अल्पबोध, मध्यमबोध, विशेषबोध जैसा भी बोध हुआ हो, तदनुसार ही पीछेसे देहमें आत्म-बुद्धि दूर होती है । देहमें रोग होनेपर जिसे आकुलता मालूम पड़े, उसे मिथ्याद्दीष्ट समझना चाहिए ।
जिस ज्ञानीको आकुलता-ज्याकुलता दूर हो गई है, उसे अंतरंग पञ्चक्खाण है ही। उसमें समस्त पञ्चक्खाण आ जाते हैं। जिसके राग द्वेष दूर हो गये हैं, उसका यदि बीस बरसका पुत्र मर जाय' तो भी उसे खेद नहीं होता । शरीरको व्याधि होनेसे जिसे व्याकुलता होती है, और जिसका कल्पना मात्र ज्ञान है, उसे शून्य अध्यात्मज्ञान मानना चाहिये । ऐसा कल्पित ज्ञानी शून्य-ज्ञानको अध्यात्मज्ञान मानकर अनाचारका सेवन करके बहुत ही भटकता है। देखो शास्त्रका फल। .