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उपदेश छाया
मनुष्यभव पाकर भटकनेमें और स्त्री-पुत्रमें तदाकार होकर, यदि आत्म-विचार नहीं किया, अपना दोष नहीं देखा, आत्माकी निन्दा नहीं की, तो वह मनुष्यभव-चिंतामणि रत्नरूप देह-वृथा ही चला जाता है।
जीव कुसंगसे और असद्गुरुसे अनादिकालसे भटका है; इसलिये सत्पुरुषको पहिचानना चाहिये । सत्पुरुष कैसा है ! सत्पुरुष तो वह है कि जिसका देहके ऊपरसे ममत्व दूर हो गया हैजिसे ज्ञान प्राप्त हो गया है। ऐसे ज्ञानी-पुरुषकी आज्ञासे आचरण करे तो अपने दोष कम हो जॉय, कषाय आदि मंद पड़ जॉय और परिणाममें सम्यक्त्व उत्पन्न हो ।
क्रोध, मान, माया, लोभ ये वास्तविक पाप हैं । उनसे बहुप्त कर्मोंका उपार्जन होता है । हजार वर्ष तप किया हो परन्तु यदि एक-दो घड़ी भी क्रोध कर लिया तो सब तप निष्फल चला जाता है।
छह खंडका भोक्ता भी राज्य छोड़कर चला गया, और मैं ऐसे अल्प व्यवहारमें बड़प्पन और अहंकार कर बैठा हूँ!' जीव ऐसा क्यों नहीं विचारता !
आयुके इतने वर्ष व्यतीत हो गये, तो भी लोभ कुछ घटा नहीं, और न कुछ ज्ञान ही प्राप्त हुआ। चाहे कितनी भी तृष्णा हो परन्तु जब आयु पूर्ण होती है उस समय वह जरा भी काममें आती नहीं; और तृष्णा की हो तो उल्टे उससे कर्म ही बँधते हैं । अमुक परिप्रहकी मर्यादा की हो- उदाहरणके लिये दस हजार रुपयेकी -- तो समता आती है । इतना मिल जानेके पश्चात् धर्मध्यान करेंगे, ऐसा विचार रक्खें तो भी नियममें आ सकते हैं।
किसीके ऊपर क्रोध नहीं करना । जैसे रात्रि-भोजनका त्याग किया है, वैसे ही क्रोध मान, माया, लोभ, असत्य आदि छोड़नेके लिये प्रयत्न करके उन्हें मंद करना चाहिये । उनके मंद पड़ जानेसे अन्त में सम्यक्त्व प्राप्त होता है। जीव विचार करे तो अनंतों कर्म मंद पड़ जॉय, और यदि विचार न करे तो अनंतों कर्मोका उपार्जन हो ।
जब रोग उत्पन्न होता है तब स्त्री, बाल-बच्चे, भाई अथवा दूसरा कोई भी रोगको ले नहीं सकता!
संतोषसे धर्मध्यान करना चाहिये लड़के-बच्चों वगैरह किसीकी अनावश्यक चिंता नहीं करनी चाहिये । एक स्थानमें बैठकर विचार कर, सत्पुरुषके संगसे, ज्ञानीके वचन मननकर विचारकर धन आदिकी मर्यादा करनी चाहिये ।
ब्रह्मचर्यको याथातथ्य प्रकारसे तो कोई विरला ही जीव पाल सकता है, तो भी लोक-लाजसे भी ब्रह्मचर्यका पालन किया जाय तो वह उत्तम है।
मिथ्यात्व दूर हो गया हो तो चार गति दूर हो जाती हैं । समकित न आया हो और ब्रह्मचर्यका पालन करे तो देवलोक मिलता है।
जीवने वैश्य, ब्राह्मण, पशु, पुरुष, स्त्री आदिकी कल्पनासे में वैश्य हूँ, ब्राह्मण हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, पशु हूँ'-ऐसा मान रक्खा है, परन्तु जीव विचार करे तो वह स्वयं उनमेंसे कोई भी नहीं। मेरा' स्वरूप तो उससे जुदा ही है।
सूर्यके उद्योतकी तरह दिन बीत जाता है, तथा अंजुलिके जलकी तरह आयु बीत जाती है। जिस तरह लकड़ी आरीसे काटी जाती है, वैसे ही आयु व्यतीत हो जाती है, तो भी मूर्ख परमार्थका साधन नहीं करता और मोहके ढेरको इकट्ठा किया करता है। . .