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भीमद् राजचन्द्र
[पत्र ४६०, ४६१, ४६२, ४६३.
४६० ___ एक बार . विक्षेप शांत हुए बिना अति समीप आने दे सकने योग्य अपूर्व संयम प्रकट नहीं होगा। कैसे, कहाँ, स्थिति करें !
४६१ बम्बई, कार्तिक सुदी १५ भौम. १९५१ श्रीठाणांगसूत्रकी एक चौभंगीका उत्तर यहाँ संक्षेपमें लिखा है:
(१) जो आत्माका तो भवांत करे किन्तु दूसरेका न करे, वह प्रत्येकबुद्ध अथवा अशोच्या केवली है । क्योंकि वे उपदेश-मार्ग नहीं चलाते हैं, ऐसा व्यवहार है।
(२) जो आत्माका तो भवांत नहीं कर सकता किन्तु दूसरेका भवांत करता है, वह अचरिमशरीरी आचार्य है, अर्थात् उसको कुछ भव धारण करना अभी और बाकी है। किन्तु उपदेश मार्गकी आत्माके द्वारा उसको पहिचान है, इस कारण उसके द्वारा उपदेश सुनकर श्रोता जीव उसी भवसे इस संसारका अंत भी कर सकता है; और आचार्यको उसी भवसे भवांत न कर सकनेके कारण उसे दूसरे भंगमें रक्खा है । अथवा कोई जीव पूर्वकालमें ज्ञानाराधन कर प्रारब्धोदयमें मंद क्षयोपशमसे वर्तमानमें मनुष्य देह पाकर, जिसने मार्ग नहीं जाना है, ऐसे किसी उपदेशकके पाससे उपदेश सुननेपर पूर्व संस्कारसे-पूर्वके आराधनसे-ऐसा विचार करे कि यह प्ररूपणा अवश्य ही मोक्षका हेतु नहीं है, क्योंकि उपदेष्टा अंधपनेसे मार्गकी प्ररूपणा कर रहा है; अथवा यह उपदेश देनेवाला जीव स्वयं अपरिणामी रहकर उपदेश दे रहा है, यह महा अनर्थ है-ऐसा विचार करते हुए उसका पूर्वाराधन जागत हो उठे, और वह उदयका नाश कर भवका अंत करे-इसीसे निमित्तरूप ग्रहण कर ऐसे उपदेशका समास भी इस भंगमें किया होगा, ऐसा मालूम होता है।
(३) जो स्वयं भी तरें और दूसरोंको भी तारें, वे श्री तीर्थकरादि हैं। (१) जो स्वयं भी तरे नहीं और दूसरोंको भी तार न सके, वे अभव्य या दुर्भव्य जीव हैं। इस प्रकार यदि समाधान किया हो तो जिनागम विरोधको प्राप्त न हो।
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बम्बई, कार्तिक १९५१ अन्यसंबंधी जो तादाम्यपन है, वह तादाम्यपन यदि निवृत्त हो जाय तो सहज स्वभावसे आत्मा मुक्त ही है-ऐसा श्रीऋषभादि अनंत ज्ञानी-पुरुष कह गये हैं। जो कुछ है वह सब कुछ उसी रूपमें समाया हुआ है।
४६३ बम्बई, कार्तिक वदी १३ रवि १९५१ ... जब प्रारब्धोदय द्रव्यादि करणोंमें निर्बल हो तब विचारवान जीवको विशेष प्रवृत्ति करना योग्य नहीं, अथवा आसपासकी प्रवृत्ति बहुत सँभालसे करनी उचित है; केवल एक ही लाभ देखते रहकर परति करना उचित नहीं है।