________________
६४३]
उपदेश-छाया होम हवन आदि बहुतसे लौकिक रिवाजोंको प्रचलित देखकर तर्थिकरभगवान्ने अपने समयमें दयाका बहुत ही सूक्ष्म रीतिसे वर्णन किया है । जैनदर्शनके समान दयासंबंधी विचार कोई दर्शन अथवा संप्रदायवाले लोग नहीं कर सके । क्योंकि जैन लोग पंचेन्द्रियका घात तो करते ही नहीं, किन्तु उन्होंने एकेन्द्रिय आदिमें भी जीवके अस्तित्वको विशेष अतिविशेष दृढ़ करके, दयाके मार्गका वर्णन किया है।
इस कारण चार वेद अठारह पुराण आदिका जिसने वर्णन किया है, उसने अज्ञानसे, स्वच्छंदसे, मिथ्यात्वसे और संशयसे ही किया है, ऐसा कहा गया है । ये वचन बहुत ही भारी लिखे हैं । यहाँ बहुत अधिक विचार कर पीछेसे वर्णन किया है कि अन्य दर्शन-वेद आदि के जो ग्रन्थ हैं उन्हें यदि सम्यग्दृष्टि जीव बाँचे तो सम्यक् प्रकारसे परिणमन करता है, और जिनभगवान्के अथवा चाहे जिस तरहके प्रन्योंके यदि मिथ्यादृष्टि बाँचे करे तो वह मिथ्यात्वरूपसे परिणमन करता है।
जीवको ज्ञानी-पुरुषके समीप उनके अपूर्व वचनोंके सुननेसे अपूर्व उल्लास-परिणाम आता है, परन्तु बादमें प्रमादी हो जानेसे अपूर्व उल्लास आता नहीं । जिस तरह हम यदि अग्निकी सिगडीके पास बैठे हों तो ठंड लगती नहीं, और सिगड़ीसे दूर चले जानेपर फिर ठंड लगने लगती है; उसी तरह ज्ञानी-पुरुषके समीप उनके अपूर्व वचनोंके श्रवण करनेसे प्रमाद आदि नष्ट हो जाते हैं, और उल्लासपरिणाम आता है; परन्तु पीछेसे फिर प्रमाद आदि उत्पन्न हो जाते हैं । यदि पूर्वके संस्कारसे वे वचन अंतर्परिणामको प्राप्त करें तो दिन प्रतिदिन उल्लास-परिणाम बढ़ता ही जाय; और यथार्थ रीतिसे भान हो। अज्ञानके दूर होनेपर समस्त भूल दूर हो जाती है-स्वरूप जागृतिमान होता है। बाहरसे वचनोंके सुननेसे अन्तर्परिणाम होता नहीं; तो फिर जिस तरह सिगड़ीसे दूर चले जानेपर फिर ठंड लगने लगती है, उसी तरह उसका दोष घटता नहीं।
__ केशीखामीने परदेशी राजाको बोध देते समय जो उसे जड़ जैसा' 'मूर्ख जैसा' कहा था, उसका कारण परदेशी राजामें पुरुषार्थ जागृत करनेका था। जड़ता-मूदता-के दूर करनेके लिये ही यह उपदेश दिया है। ज्ञानीके वचन अपूर्व परमार्थको छोड़कर दूसरे किसी कारणसे होते नहीं। बाल-जीव ऐसी बातें किया करते हैं कि छप्रस्थभावसे ही केशीस्वामीने परदेशी राजाके प्रति वैसे वचन कहे थे; परन्तु यह बात नहीं । उनकी वाणी परमार्थके कारण ही निकली थी।
जड़ पदार्थको लेने-रखनेमें उन्मादसे प्रवृत्ति करे तो उसे असंयम कहा है। उसका कारण यह है कि जल्दबाजीसे लेने-रखनेमें आत्माका उपयोग चूककर तादात्म्यभाव हो जाता है। इस कारण उपयोगके चूक जानेको असंयम कहा है।
अहंकारसे आचार्यभाव धारण कर दंभ रक्खे और उपदेश दे तो पाप लगता है। आत्मवृत्ति रखनेके लिये ही उपयोग रखना चाहिये। .
श्रीआचारांग सूत्रमें कहा है कि जो आनवा है वे परिस्रवा हैं' और जो परिखता है वे आता है।' जो आस्रव है, वह ज्ञानीको मोक्षका हेतु होता है, और जो संबर है वह संवर होनेपर भी अज्ञानीको, बंधका हेतु होता है-ऐसा स्पष्टरूपसे कहा है। उसका कारण ज्ञानीमें उपयोगकी जागृति करना है, और वह अज्ञानीमें है नहीं। .