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उपदेश छाया वाला नहीं, तो फिर मरणका भय क्या है ! जिसकी देहकी मूर्छा चली गई है उसे आत्म-ज्ञान हुआ कहा जाता है।
प्रश्नः-जीवको किस तरह बर्ताव करना चाहिये !
उत्तरः-जिस तरह सत्संगके योगसे आत्माको शुद्धता प्राप्त हो उस तरह । परन्तु सदा सत्संगका योग नहीं मिलता । जीवको योग्य होनेके लिये हिंसा नहीं करना, सत्य बोलना, बिना दिया हुआ नहीं लेना, ब्रह्मचर्य पालना, परिग्रहकी मर्यादा करनी, रात्रिभोजन नहीं करना-इत्यादि सदाचरणको, ज्ञानियोंने शुद्ध अंतःकरणसे करनेका विधान किया है । वह भी यदि आत्माका लक्ष रखकर किया जाता हो तो उपकारी है, नहीं तो उससे केवल पुण्य-योग ही प्राप्त होता है । उससे मनुष्यभव मिलता है, देवगति मिलती है, राज मिलता है, एक भवका सुख मिलता है, और पीछेसे चारों गतियोंमें भटकना पड़ता है । इसलिये ज्ञानियोंने तप आदि जो क्रियायें आत्माके उपकारके लिये, अहंकाररहित भावसे करनेके लिये कहीं हैं, उन्हें परमज्ञानी स्वयं भी जगत्के उपकारके लिये निश्चयरूपसे सेवन करता है ।
महावीरस्वामीने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद उपवास नहीं किया, ऐसा किसी भी ज्ञानीने नहीं किया। फिर भी लोगोंके मनमें यह न हो कि ज्ञान होनेके पश्चात् खाना-पीना सब एक-सा है—इतनेके लिये ही अन्तिम समय तपकी आवश्यकता बतानेके लिये उपवास किया; दानके सिद्ध करनेके लिये दीक्षा लेनेके पहिले स्वयं एकवर्षीय दान दिया । इससे जगत्को दान सिद्ध कर दिखाया; माता-पिताकी सेवा सिद्धकर दिखाई । दीक्षा जो छोटी वयमें न ली वह भी उपकारके लिये ही, नहीं तो अपनेको करना न करना दोनों ही समान हैं। जो साधन कहे हैं, वे आत्मलक्ष करनेके लिये हैं। परके उपकारके लिये ही ज्ञानी सदाचरण सेवन करता है।
. हालमें जैनदर्शनमें बहुत समयसे अव्यवहृत कुँएकी तरह आवरण आ गया है। कोई ज्ञानी-पुरुष नहीं है । कितने ही समयसे कोई ज्ञानी नहीं हुआ, अन्यथा उसमें इतना अधिक कदाग्रह नहीं हो जाता । इस पंचमकालमें सत्पुरुषका याग मिलना दुर्लभ है, और उसमें हालमें तो विशेष दुर्लभ देखनेमें आता है । प्रायः पूर्वके संस्कारी जीव देखनेमें आते नहीं । बहुतसे जीवोंमें कोई कोई ही सच्चा मुमुक्षु-जिज्ञासु–देखनेमें आता है । बाकी तो तीन प्रकारके जीव देखनेमें आते हैं; जो बाह्य दृष्टिसे युक्त हैं:
१. 'क्रिया करना नहीं चाहिये क्रियासे बस देवगति मिलती है, उससे अन्य कुछ प्राप्त नहीं होता। जिससे चार गतियोंका भ्रमण दूर हो, वही सत्य है'-ऐसा कहकर सदाचरणको केवल पुण्यका हेतु मान उसे नहीं करते, और पापके कारणोंका सेवन करते हुए अटकते नहीं । ऐसे जीवोंको कुछ करना ही नहीं है, और बस बड़ी बड़ी बातें करना है । इन जीवोंको 'अज्ञानवादी' रूपमें रक्खा जा सकता है।
२. 'एकान्त क्रिया करना चाहिये, उसीसे कल्याण होगा,'-इस प्रकार माननेवाले एकान्त व्यवहारमें कल्याण मानकर कदाग्रह नहीं छोड़ते । ऐसे जीवोंको ‘क्रियावादी' अथवा 'क्रियाजद' समझना चाहिये । क्रिया-जड़को आत्माका लक्ष नहीं होता।