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श्रीमद् राजचन्द्र चैतन्य एक हो तो भ्रान्ति किसे हुई समझनी चाहिये ! मोक्ष किसे हुई समझनी चाहिये ! समस्त चैतन्यकी जाति एक है, परन्तु प्रत्येक चैतन्यका स्वतंत्ररूपसे जुदा चैतन्य है । चैतन्यका स्वभाव एक है । मोक्ष स्वानुभव-गोचर है । निरावरणमें भेद नहीं । परमाणु एकत्रित न हों, अर्थात् आत्मा और परमाणुका संबंध न होना मुक्ति है; परस्वरूपमें मिलनेका नाम मुक्ति नहीं है।
कल्याण करने न करनेका तो भान नहीं, परन्तु जीवको अपनापन रखना है । बंध कबतक होता है। जीव चैतन्य न हो तबतक । एकेन्द्रिय आदि योनिमें भी जीवका ज्ञान-स्वभाव सर्वथा लुप्त नहीं हो जाता, अंशसे खुला ही रहता है । अनादि कालसे जीव बँधा हुआ है । निरावरण होनेके पश्चात् वह बँधता नहीं। मैं जानता हूँ' ऐसा जो अभिमान है वही चैतन्यकी अशुद्धता है। इस जगत्में बंध और मोक्ष न होता तो फिर श्रुतिका उपदेश किसके लिये होता ! आत्मा स्वभावसे सर्वथा निष्क्रिय है, प्रयोगसे सक्रिय है । जिस समय निर्विकल्प समाधि होती है उसी समय निष्क्रियता कही है। निर्विवादरूपसे वेदान्तके विचार करने में बाधा नहीं । आत्मा अहंतपदका विचार करे तो अर्हत हो जाय । सिद्धपदका विचार करे तो सिद्ध हो जाय । आचार्यपदका विचार करे तो आचार्य हो जाय । उपाध्यायका विचार करे तो उपाध्याय हो जाय । स्त्रीरूपका विचार करे तो आत्मा स्त्री हो जाय; अर्थात् आत्मा जिस स्वरूपका विचार करे तद्रूप भावात्मा हो जाती है । आत्मा एक है अथवा अनेक हैं, इसकी चिन्ता नहीं करना । हमें तो इस विचारकी ज़रूरत है कि मैं एक हूँ' । जगत्भरको इकट्ठा करनेकी क्या ज़रूर है ! एक-अनेकका विचार बहुत दूर दशाके पहुँचनेके पश्चात् करना चाहिये । जगत् और आत्माको स्वप्नमें भी एक नहीं मानना । आत्मा अचल है, निरावरण है। वेदान्त सुनकर भी आत्माको पहिचानना चाहिये । आत्मा सर्वव्यापक है, अथवा आत्मा देह-व्यापक है, यह अनुभव प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है ।
सब धर्मीका तात्पर्य यही है कि आत्माको पहिचानना चाहिये । दूसरे जो सब साधन हैं वे जिस अगह चाहिये ( योग्य हैं), उन्हें ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक उपयोग करनेसे अधिकारी जीवको फल होता है। दया आदि आत्माके निर्मल होनेके साधन हैं।
मिथ्यात्व, प्रमाद, अवत, अशुभ योग, ये अनुक्रमसे दूर हो जॉय तो सत्पुरुषका वचन आत्मामें प्रवेश करे; उससे समस्त दोष अनुक्रमसे नाश हो जॉय । आत्मज्ञान विचारसे होता है । सत्पुरुष तो पुकार पुकार कर कह गये हैं। परन्तु जीव लोक-मार्गमें पड़ा हुआ है, और उसे लोकोत्तर मार्ग मान रहा है। इससे किसी भी तरह दोष दूर नहीं होता। लोकका भय छोड़कर सत्पुरुषोंके वचन आत्मामें प्रवेश करें तो सब दोष दूर हो जॉय । जीवको अहंभाव लाना नहीं चाहिये । मान-बड़ाई और महत्ताके त्यागे बिना सम्यक्मार्ग आत्मामें प्रवेश नहीं करता। - ब्रह्मचर्यके विषयमें:-परमार्थके कारण नदी उतरनेके लिये मुनिको ठंडे पानीकी आज्ञा दी है, परन्तु अब्रह्मचर्यकी आज्ञा नहीं दी, और उसके लिये कहा है कि अल्प आहार करना, उपवास करना, एकांतर करना, और अन्तमें ज़हर खाकर मर जाना, परन्तु ब्रह्मचर्य भंग नहीं करना ।
. जिसे देहकी मूर्छा हो उसे कल्याण किस तरह मालूम हो सकता है ! सर्प काट खाय और भय न हो तो समझना चाहिये कि आत्मज्ञान प्रगट हुआ है। आत्मा अजर अमर है। मैं' मरने