________________
६४३]
उपदेश-छाया स्वयं तो पार हुआ नहीं और दूसरोंको पार उतारता है, इसका अर्थ अंधमार्ग बताने जैसा है । असद्गुरु इस प्रकारका मिथ्या आलंबन देते हैं* !
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामक जैनसूत्रमें ऐसा कहा है कि इस कालमें मोक्ष नहीं । इसके ऊपरसे यह न समझना चाहिये कि मिथ्यात्वका दूर होना और उस मिथ्यात्वके दूर होनेरूप भी मोक्ष नहीं है । मिथ्यात्वके दूर होनेरूप मोक्ष है; परन्तु सर्वथा अर्थात् आत्यंतिक देहरहित मोक्ष नहीं है। इसके ऊपरसे यह कहा जा सकता है कि इस कालमें सर्व प्रकारका केवलज्ञान नहीं होता, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस कालमें सम्यक्त्व भी न होता हो। इस कालमें मोक्षके न होनेकी ऐसी वातें कोई करे तो उन्हें सुनना भी नहीं । सापुरुषकी बात पुरुषार्थको मंद करनेकी नहीं होती-पुरुषार्थको उत्तेजन देनेकी ही होती है।
ज़हर और अमृत दोनों समान हैं, ऐसा ज्ञानियोंने कहा हो, तो वह अपेक्षित ही है । ज़हर और अमृतको समान कहनेसे कुछ ज़हरका ग्रहण करना बताया है, यह बात नहीं । इसी तरह शुभ और अशुभ क्रियाओंके संबंधमें समझना चाहिये । शुभ और अशुभ क्रियाका निषेध किया हो तो वह मोक्षकी अपेक्षासे ही है । किन्तु उससे शुभ और अशुभ दोनों क्रियायें समान हैं, यह समझकर शुभ क्रिया भी नहीं करना चाहिये-ऐसा ज्ञानी-पुरुषका कथन कभी भी नहीं होता । सत्पुरुषका वचन कभी अधर्ममें धर्म स्थापन करनेका नहीं होता।
जो क्रिया करना उसे अदंभपनेसे, निरहंकारपनेसे करना चाहिये-क्रियाके फलकी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिये । शुभ क्रियाका कोई निषेध किया ही नहीं, परन्तु जहाँ जहाँ केवल बाह्य क्रियासे ही मोक्ष स्वीकार किया है, वहीं उसका निषेध किया है।
शरीर ठीक रहे, यह भी एक तरहकी समाधि है। मन ठीक रहे, यह भी एक तरहकी समाधि है । सहज-समाधि अर्थात् बाह्य कारणरहित समाधि । उससे प्रमाद आदिका नाश होता है । जिसे यह समाधि रहती है, उसे कोई लाख रुपये दे तो भी उसे आनन्द नहीं होता; अथवा उससे कोई उन्हें ज़बर्दस्ती छीन ले तो भी उसे खेद नहीं होता । जिसे साता-असाता दोनों समान हैं, उसे सहजसमाधि कही गई है । समकितदृष्टिको अल्प हर्ष, अल्प शोक कभी हो भी जाय, परन्तु पीछेसे वह शान्त हो जाता है । उसे अंगका हर्ष नहीं रहता; जिस तरह उसे खेद हो वह उस तरह उसे पीछे खींच लेता है । वह विचारता है कि इस तरह होना योग्य नहीं', और वह आत्माकी निन्दा करता है। उसे हर्ष-शोक हों तो भी उसका ( समकितका ) मूल नाश नहीं होता । समकितदृष्टिको अंशसे सहज प्रतीतिके होनेसे सदा ही समाधि रहती है। पतंगकी डोरी जैसे हाथमें रहती है, उसी तरह समकितदृष्टिकी वृत्तिरूपी डोरी उसके हाथमें ही रहती है।
समकितदृष्टि जीवको सहज-समाधि है । सत्तामें कर्म बाकी रहे हों, उसे फिर भी सहजसमाधि ही है । उसे बाह्य कारणोंसे समाधि नहीं, किन्तु आत्मामेंसे जो मोह दूर हो गया वही समाधि है। मिथ्यादृष्टिके हाथमें डोरी नहीं, इससे वह बाह्य कारणोंमें तदाकार होकर उसरूप हो जाता है।
समकितदृष्टिको बाह्य दुःख आनेपर भी खेद नहीं होता। यद्यपि वह ऐसी इच्छा नहीं करता कि रोग आये । परन्तु रोग आनेपर उसके राग-द्वेष परिणाम नहीं होते ।
* इसके बादके तीन पैरेग्राफ पत्र नम्बर ६१८ में आ गये है। -अनुवादक.