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श्रीमद् राजचन्द्र
होगी तो कालक्रमसे उस उस प्रकारमें विशेष प्रवृत्ति होगी, यह जानकर ज्ञानाने सुई जैसी निर्जीव वस्तुके संबंधमें भी इस तरह आचरण करनेकी आज्ञा की है। लोककी दृष्टिमें तो यह बात साधारण है। परन्तु ज्ञानीकी दृष्टिमें उतनी छूट भी जड़मूलसे नाश कर सके, इतनी बड़ी मालूम होती है। .
ऋषभदेवजीके पास अट्ठानवें पुत्र यह कहनेके अभिप्रायसे आये थे कि 'हमें राज प्रदान करो।' वहाँ तो ऋषभदेवने उपदेश देकर अट्ठानवेंके अट्ठानवोंको ही मूंड लिया । देखो महान् पुरुषकी करुणा!
केशीस्वामी और गौतमस्वामी कैसे सरल थे ! दोनोंने ही एक मार्गको जाननेसे पाँच महाव्रत ग्रहण किये थे। आजकलके समयमें दोनों पक्षोंका इकट्ठा होना हो तो वह न बने । आजकलके ढूंढिया
और तेप्पा, तथा हरेक जुदे जुदे संघाड़ोंका इकट्ठा होना हो तो वह न बने, उसमें कितना ही काल व्यतीत हो जाय । यद्यपि उसमें है कुछ भी नहीं, परन्तु असरलताके कारण वह संभव ही नहीं। • सत्पुरुष कुछ सत् अनुष्ठानका त्याग कराते नहीं, परन्तु यदि उसका आग्रह हुआ होता है तो
आग्रह दूर करानेके लिये उसका एक बार त्याग कराते हैं । आग्रह दूर होनेके बाद पीछेसे उसे वे. ग्रहण करनेको कहते हैं।
चक्रवर्ती राजा जैसे भी नग्न होकर चले गये हैं ! कोई चक्रवर्ती राजा हो, उसने राज्यका त्याग कर दीक्षा ग्रहण की हो; और उसकी कुछ भूल हो गई, और कोई ऐसी बात हो कि उस चक्रवर्तीके राज्य-कालका दासीका कोई पुत्र उस भूलको सुधार सकता हो, तो उसके पास जाकर, चक्रवर्तीको उसके कथनके ग्रहण करनेकी आज्ञा की गई है । यदि उसे उस दासीके पुत्रके पास जाते समय ऐसा हो कि 'मैं दासीके पुत्रके पास कैसे जाऊँ तो उसे भटक भटककर मरना है । ऐसे कारणोंके उपस्थित होनेपर लोक-लाजको छोड़नेका ही उपदेश किया है; अर्थात् जहाँ आत्माको ऊँचे ले जानेका कोई अवसर हो, वहाँ लोक-लाज नहीं मानी गई। परन्तु कोई मुनि विषय-इच्छासे वेश्याके घर जाय, और वहाँ जाकर उसे ऐसा हो कि 'मुझे लोग देख लेंगे तो मेरी निन्दा होगी, इसलिये यहाँसे वापिस लौट चलना चाहिये ' तो वहाँ लोक-लाज रखनेका विधान है। क्योंकि ऐसे स्थानमें लोक-लाजका भय खानेसे ब्रह्मचर्य रहता है, जो उपकारक है।
हितकारी क्या है, उसे समझना चाहिये । आठमकी तकरारको तिथिके लिये करना नहीं, परन्तु हरियालीके रक्षणके लिये ही तिथि पालनी चाहिये । हरियालीके रक्षणके लिये आठम आदि तिथि कही गई हैं, कुछ तिथिके लिये आठम आदिको कहा नहीं । इसलिये आठम आदि तिथिके कदाग्रहको दूर करना चाहिये । जो कुछ कहा है वह कदाग्रहके करनेके लिये कहा नहीं । आत्माकी शुद्धिसे जितना करोगे उतना ही हितकारी है। जितना अशुद्धिसे करोगे उतना ही अहितकारी है, इसलिये शुद्धतापूर्वक सद्वतका सेवन करना चाहिये।
हमें तो ब्राह्मण, वैष्णव, चाहे जो हो सब समान ही हैं । कोई जैन कहा जाता हो और मतसे ग्रस्त हो तो वह अहितकारी है, मतरहित ही हितकारी है।
सामायिक-शास्त्रकारने विचार किया कि यदि कायाको स्थिर रखनी होगी, तो पीछेसे विचार करेगा; नियम नहीं बाँधा हो तो दूसरे काममें पड़ जायगा, ऐसा समझकर उस प्रकारका नियम बाँधा।
१ तपगच्छवाले ।-अनुवादक.