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श्रीमद् राजचन्द्र
[६४३ और आत्मामें कोमलता हो तो वह फलदायक होता है। जिससे वास्तवमें पाप लगता है, उसे रोकना अपने हाथमें है, यह अपनेसे बन सकने जैसा है; उसे जीव रोकता नहीं; और दूसरी तिथि आदिकी योंही फिक्र किया करता है । अनादिसे शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शका मोह रहता आया है, उस मोहको दूर करना है। बड़ा पाप अज्ञानका है।
जिसे अविरतिके पापकी चिंता होती हो उससे वहाँ रहा ही कैसे जा सकता है !
स्वयं त्याग कर सकता नहीं और बहाना बनावे कि मुझे अन्तराय बहुत हैं। जब धर्मका प्रसंग आवे तो कहता है कि 'उदय है' ।' उदय उदय' कहा करता है, परन्तु कुछ कुवेमें गिर पड़ता नहीं। गाड़ीमें बैठा हो, और गड्डा आ जावे तो सहजमें संभलकर चलता है । उस समय उदयको भूल जाता है। अर्थात् अपनी तो शिथिलता हो, उसके बदले उदयका दोष निकालता है।
लौकिक और लोकोत्तर विचार जुदा जुदा होता है। उदयका दोष निकालना यह लौकिक विचार है । अनादि कालके कर्म तो दो घड़ीमें नाश हो जाते हैं, इसलिये कर्मका दोष निकालना चाहिये नहीं; आत्माकी ही निन्दा करनी चाहिये । धर्म करनेकी बात आवे तो जीव पूर्व कर्मके दोषकी बातको आगे कर देता है। पुरुषार्थ करना ही श्रेष्ठ है । पुरुषार्थको पहिले करना चाहिये। मिथ्यात्व, प्रमाद और अशुभ योगका त्याग करना चाहिये।
कौके दूर किये बिना कर्म दूर होनेवाले नहीं। इतनेके लिये ही ज्ञानियोंने शास्त्रोंकी रचना की है। शिथिल होनेके साधन नहीं बताये। परिणाम ऊँचे आने चाहिये । कर्म उदयमें आवेगा, यह मनमें रहे तो कर्म उदयमें आता है। बाकी पुरुषार्थ करे तो कर्म दूर हो जाय। जिससे उपकार हो वही लक्ष रखना चाहिये।
(७)वडवा,सबेरे ११ बजे भाद्रपद सुदी १० गुरु. १९५२ कर्म गिन गिनकर नाश किये नहीं जाते । ज्ञानी-पुरुष तो एक साथ ही सबके सब इकडे कर नाश कर देता है।
विचारवानको दूसरे आलंबन छोड़कर, जिससे आत्माके पुरुषार्थका जय हो, वैसा आलंबन लेना चाहिये । कर्म-बंधनका आलंबन नहीं लेना चाहिये । आत्मामें परिणाम हो वह अनुप्रेक्षा है।
मिट्टीमें घड़े बननेकी सत्ता है परन्तु जब दंड, चक्र, कुम्हार आदि इकठे हों तभी तो। इसी तरह आत्मा मिट्टीरूप है, उसे सद्गुरु आदिका साधन मिले तो ही आत्मज्ञान उत्पन्न होता है । जो ज्ञान हुआ हो वह, पूर्वकालीन ज्ञानियोंने जो ज्ञान सम्पादन किया है, उसके साथ और वर्तमानमें जो ज्ञान ज्ञानी-पुरुषोंने सम्पादन किया है, उसके साथ पूर्वापर संबद्ध होना चाहिये, नहीं तो अज्ञानको ही ज्ञान मान लिया है, ऐसा कहा जायगा।
ज्ञान दो प्रकारके हैं:-एक बीजभूत ज्ञान और दूसरा वृक्षभूत ज्ञान । प्रतीतिसे दोनों ही समान हैं, उनमें भेद नहीं । वृक्षभूत-सर्वथा निरावरण ज्ञान-हो तो उसी भवसे मोक्ष हों जाय, और बीजभूत ज्ञान हो तो अन्तमें पन्द्रह भवमें मोक्ष हो।
आत्मा अरूपी है, अर्थात् वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरहित वस्तु है-अवस्तु नहीं । जिसने षड्दर्शनोंकी रचना की है, उसने बहुत बुद्धिमानीका उपयोग किया है।