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उपदेश-छाया त्यागके ऊपर हमेशा लक्ष रखना चाहिये । त्यागको शिथिल नहीं रखना चाहिये। श्रावकको तीन मनोरथ चितवन करने चाहिये । सत्यमार्गकी आराधना करनेके लिये मायासे दूर रहना चाहिये । त्याग करते ही जाना चाहिये । माया किस तरह भुला देती है, उसका एक दृष्टान्तः--
एक संन्यासी कहा करता था कि ' मैं मायाको घुसनेतक भी न दूंगा, मैं नग्न होकर विचरूँगा' । मायाने कहा कि 'मैं तेरे आगे आगे चलूंगी'। संन्यासीने कहा कि 'मैं जंगलमें अकेला विचरूँगा'। मायाने कहा 'मैं सामने आ जाऊँगी'। इस तरह वह संन्यासी जंगलमें रहता, और 'मुझे कंकड़ और रेत दोनों समान है। यह कहकर रेतपर सोया करता । एक दिन उसने मायासे पूँछा कि बोल अब तू कहाँ है ! मायाने समझ लिया कि इसे गर्व बहुत चढ़ रहा है, इसलिये उसने उत्तर दिया कि मेरे आनेकी जरूरत क्या है ? मैं अपने बड़े पुत्र अहंकारको तेरी खिदमतमें भेज ही चुकी हूँ।
माया इस तरह ठगती है । इसलिये ज्ञानी कहते हैं कि ' मैं सबसे न्यारा हूँ, सर्वथा त्यागी हो गया हूँ, अवधूत हूँ, नग्न हूँ, तपश्चर्या करता हूँ। मेरी बात अगम्य है। मेरी दशा बहुत ही श्रेष्ठ है । माया मुझे रोकेगी नहीं' ऐसी मात्र कल्पनासे मायाद्वारा ठगाये जाना नहीं चाहिये।
स्वच्छंदमें अहंकार है । जबतक राग-द्वेष दूर होते नहीं तबतक तपश्चर्या करनेका फल ही क्या है! जनकविदेहीमें विदेहीपना हो नहीं सकता, यह केवल कल्पना है । संसारमें विदेहीपना रहता नहीं,' ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । अपनापन दूर हो जानेसे उस तरह रहा जा सकता है। जनकविदेहीकी दशा उचित है । जब वसिष्ठजीने रामको उपदेश दिया, उस समय राम गुरुको राज्य अर्पण करने लगे, परन्तु गुरुने राज्य लिया ही नहीं। शिष्य और गुरु ऐसे होने चाहिये ।
____ अज्ञान दूर करना है । उपदेशसे अपनापन दूर हटाना है। जिसका अज्ञान गया उसका दुःख चला गया।
ज्ञानी गृहस्थावासमें बाह्य उपदेश व्रत देते नहीं। जो गृहस्थावासमें हों ऐसे परमज्ञानी मार्ग चलाते नहीं; मार्ग चलानेकी रीतिसे मार्ग चलाते नहीं; स्वयं अविरत रहकर व्रत ग्रहण कराते नहीं, क्योंकि वैसा करनेसे बहुतसे कारणोंमें विरोध आना संभव है।
सकाम भक्तिसे ज्ञान होता नहीं। निष्काम भक्तिसे ज्ञान होता है। ज्ञानीके उपदेशमें अद्भुतता है । वे अनिच्छाभावसे उपदेश देते हैं, स्पृहारहित होते हैं । उपदेश ज्ञानका माहात्म्य है। माहात्म्यके कारण अनेक जीव बोध पाते हैं।
अज्ञानीका सकाम उपदेश होता है, जो संसारके फलका कारण है । जगत्में अज्ञानीका मार्ग अधिक है । ज्ञानीको मिथ्याभाव क्षय हो गया है; अहंभाव दूर हो गया है। इसलिये उसके अमूल्य वचन निकलते हैं। बाल-जीवोंको ज्ञानी-अज्ञानीकी पहिचान होती नहीं।
आचार्यजीने जीवोंको स्वभावसे प्रमादी जानकर, दो दो तीन तीन दिनके अन्तरसे नियम पालनेकी आज्ञा की है । तिथियोंके लिये मिथ्याग्रह न रख उसे छोड़ना ही चाहिये। कदाग्रह छुड़ानेके लिये तिथियाँ बनाई हैं, परन्तु उसके बदले उसी दिन कदाग्रह बढ़ता है । हालमें बहुत वर्षोंसे पर्युषणमें तिथियोंकी भ्रान्ति चला करती है। तिथियोंके नियमोंको लेकर तकरार करना मोक्ष जानेका रास्ता नहीं । कचित् पाँचमका दिन न पाला जाय, और कोई छठका दिन पाले,
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