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श्रीमद् राजचन्द्र
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. . उपयोग दो प्रकारके कहे हैं:-१ द्रव्य उपयोग. २ भाव उपयोग... ... जैसी सामर्थ्य सिद्धभगवान्की है, वैसी सब जीवोंको हो सकती है। केवल अज्ञानके कारण ही वह ध्यानमें आती नहीं। जो विचारवान जीव हो उसे तो नित्य ही तत्संबंधी विचार करना चाहिये।
जीव ऐसा समझता है कि मैं जो क्रिया करता हूँ इससे मोक्ष है। क्रिया करना ही श्रेष्ठ बात है, परन्तु उसे वह लोक-संज्ञासे करे तो उसका फल मिलता नहीं। .. जैसे किसी आदमीके हाथमें चिंतामणि रल आ गया हो, किन्तु यदि उसे उसकी खबर न हो तो वह निष्फल ही चला जाता है, और यदि खबर हो तो ही उसका फल मिलता है। इसी तरह यदि जीवको ज्ञानीकी सच्ची सच्ची खबर पड़े तो ही उसका फल है।
जीवकी अनादिकालसे भल चली आती है। उसे समझनेके लिये जीवकी जो भूल-मिथ्यात्व है, उसका मूलसे ही छेदन करना चाहिये । यदि उसका मूलसे छेदन किया जाय तो वह फिर अंकुरित होती नहीं, अन्यथा वह फिरसे अंकुरित हो जाती है। जिस तरह पृथ्वीमें यदि वृक्षकी जड़ बाकी रह गई हो तो वृक्ष फिरसे उग आता है । इसलिये जीवकी वास्तविक भल क्या है, उसका विचार विचार कर उससे मुक्त होना चाहिये । 'मुझे किस कारणसे बंधन होता है ! वह किस तरह दूर हो सकता है'? यह विचार पहले करना चाहिये ।
रात्रि-भोजन करनेसे आलस-प्रमाद उत्पन्न होता है, जागृति होती नहीं, विचार माता नहीं, इत्यादि अनेक प्रकारके दोष रात्रि-भोजनसे पैदा होते हैं । मैथुन करनेके पश्चात् भी बहुतसे दोष उत्पन्न होते हैं।
कोई हरियाली बिनारता हो तो वह हमसे देखा जा सकता नहीं । तथा आत्मा उज्वलता प्राप्त करे तो बहुत ही अनुकंपा बुद्धि रहती है।
- ज्ञानमें सीधा ही भासित होता है, उल्टा भासित नहीं होता । ज्ञानी मोहको प्रवेश करने देता नहीं। उसके जागृत उपयोग होता है। ज्ञानीके जिस तरहका परिणाम हो वैसा ही ज्ञानीको कार्य होता है । तथा जिस तरह अज्ञानीका परिणाम हो, वैसा ही अज्ञानीका कार्य होता है। ज्ञानीका चलना सीधा, बोलना सीधा और सब कुछ सीधा ही होता है । अज्ञानीका सब कुछ उल्टा ही होता है। वर्तनके विकल्प होते हैं।
मोक्षका उपाय है । ओघ-भावसे खबर होगी, विचारमावसे प्रतीति आवेगी।
अज्ञानी स्वयं दरिदी है। ज्ञानीकी आज्ञासे काम क्रोध आदि घटते हैं। ज्ञानी उसका वैध है। ज्ञानीके हाथसे चारित्र प्राप्त हो तो मोक्ष हो जाय । ज्ञानी जो जो व्रत दे वे सब ठेठ अन्ततक ले जाकर पार उतारनेवाले हैं । समकित आनेके पश्चात् आत्मा समाधिको प्राप्त करेगी, क्योंकि अब वह सच्ची हो गई है।
(५) . . . भाद्रपद मुद्री ९, १९५२ प्रश्नः-ज्ञानसे कर्मकी निर्जरा होती है, क्या यह ठीक है! .
उत्तरः-सार जाननेको ज्ञान कहते हैं और सार न जाननेको अज्ञान कहते हैं। हम किसी भी पापसे निवृत्त हों, अथवा कल्याणमें प्रवृत्ति करें, वह ज्ञान है । परमार्थको समझकर करना चाहिये। अहंकाररहित, लोकसंज्ञारहित, आत्मामें प्रवृत्ति करनेका नाम 'निर्जरा' है। । . . ... ... ...