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उपदेश-छाया प्रश्नः-उदयकर्म किसे कहते हैं !
उत्तरः-ऐश्वर्यपद प्राप्त होते समय उसे धक्का मारकर पीछे निकाल बाहर करे, कि 'यह मुझे चाहिये नहीं; मुझे इसका करना क्या है ?' कोई राजा यदि प्रधानपद दे तो भी स्वयं उसके लेनेकी इच्छा करें नहीं। ' इसका मुझे करना क्या है ? घरसंबंधी उपाधि हो तो वही बहुत है' इस तरह उस पदको मना कर दे । ऐश्वर्यपदकी अनिच्छा होनेपर भी राजा फिर फिरसे देनेकी इच्छा करे, और इस कारण वह ऊपर आ ही पड़े, तो उसे विचार होता है कि ' देख, यदि तेरा प्रधानपद होगा तो बहुतसे जीवोंकी दया पलेगी, हिंसा कम होगी, पुस्तक-शालायें खुलेंगी, पुस्तकें छपाई जावेंगी'-इस तरह धर्मके बहुतसे कारणोंको समझकर वैराग्य भावनासे वेदन करना, उसे उदय कहा जाता है। इच्छासहित तो भोग करे, और उसे उदय बतावे तो वह शिथिलता और संसारमें भटकनेका ही कारण होता है।
. बहुतसे जीव मोह-गर्भित वैराग्यसे और बहुतसे दुःख-गर्मित वैराग्यसे दीक्षा ले लेते हैं। दीक्षा लेनेसे अच्छे अच्छे नगर और गाँवोंमें फिरनेको मिलेगा। दीक्षा लेनेके पश्चात् अच्छे अच्छे पदार्थ खानेको मिलेंगे । बस मुश्किल एक इतनी ही है कि गरमीमें नंगे पैरों चलना पड़ेगा, किन्तु इस तरह तो साधारण किसान अथवा पटेल लोग भी गरमीमें नंगे पैरों चलते हैं, तो फिर उनकी तरह यह भी आसान से ही हो जायगा। परन्तु और किसी दूसरी तरहका दुःख नहीं है, और कल्याण ही हैऐसी भावनासे दीक्षा लेनेका जो वैराग्य है वह मोह-गर्भित वैराग्य है। पूनमके दिन बहुतसे लोग डाकोर जाते हैं, परन्तु कोई यह विचार करता नहीं कि इससे अपना कल्याण क्या होता है ! पूनमके दिन रणछोरजीके दर्शन करनेके लिये उनके बाप दादे जाते थे, इसलिए उनके लड़के बच्चे भी जाते हैं । परन्तु उसके हेतुका विचार करते नहीं । यह भी मोह-गर्मित वैराग्यका भेद है। - जो सांसारिक दुःखसे संसार-त्याग करता है, उसे दुःख-गर्भित वैराग्य समझना चाहिये ।
जहाँ जाओ वहाँ कल्याणकी ही वृद्धि हो, ऐसी दृढ़ बुद्धि करनी चाहिये । कुल-गच्छके आग्रहको छुड़ाना, यही सत्संगके माहात्म्यके सुननेका प्रमाण है। मतमतांतर आदि, धर्मके बड़े बड़े अनंतानुबंधी पर्वतके फाटककी तरह कभी मिलते ही नहीं। कदाग्रह करना नहीं और जो कदाग्रह करता हो तो उसे धीरजसे समझाकर छुड़ा देना, तो ही समझनेका फल है। अनंतानुबंधी मान, कल्याण होनेमें बीचमें स्तंभरूप कहा गया है। जहाँ जहाँ गुणी मनुष्य हो, वहाँ वहाँ विचारवान जीव उसका संग करनेके लिये कहता है । अज्ञानीके लक्षण लौकिक भावके होते हैं । जहाँ जहाँ दुराग्रह हो, उस उस जगहसे छूटना चाहिये । ' इसकी मुझे आवश्यकता नहीं, ' यही समझना चाहिये ।
(१) रालज, भाद्रपद सुदी ६ शनि. १९५२ - प्रमादसे योग उत्पन्न होता है । अज्ञानीको प्रमाद है । योगसे अज्ञान उत्पन्न होता हो, तो वह ज्ञानीमें भी संभव है, इसलिये ज्ञानीको योग होता है, परन्तु प्रमाद होता नहीं । ... "स्वभावमें रहना और विभावसे छूटना;" यही मुख्य बात समझनेकी है। बाल-जीवोंके समझनेके लिये ज्ञानी-पुरुषोंने सिद्धान्तोंके बड़े भागका वर्णन किया है।