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श्रीमद् राजचन्द्र
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. समुद्र खारा है । एकदम तो उसका खारापन दूर होता नहीं। उसके दूर करनेका उपाय यह है कि उस समुद्रमेंसे एक एक जलंका प्रवाह लेकर उस प्रवाहमें, जिससे उस पानीका खारापन दूर हो और उसमें मिठास आ जाय ऐसा खार डालना चाहिए । उस पान के सुखानेके दो उपाय हैं-एक तो सूर्यका ताप और दूसरी जमीन । इसलिये प्रथम जमीन तैय्यार करना चाहिये और बादमें नालियोंद्वारा पानी ले जाना चाहिये और पीछेसे खार डालना चाहिए, जिससे उसका खारापन दूर हो जायगा। इसी तरह मिथ्यात्वरूपी समुद्र है, उसमें कदाग्रह आदिरूप खारापन है, इसलिये कुलधर्मरूपी प्रवाहको योग्यतारूप जमीनमें ले जाकर उसमें सद्बोधरूपी खार डालाना चाहिये-इससे सत्पुरुषरूपी तापसे खारापन दूर होगा...
.* दुर्बल देहने मास उपवासी, जो छ मायारंग रे, ..... तो पण गर्भ अनंता लेशे, बोले बीजु अंग रे।
: + जितनी भ्रान्ति अधिक उतना ही अधिक मिथ्यात्व । सबसे बड़ा रोग मिथ्यात्वं ।
जब जब तपश्चर्या करना तब तब उसे स्वच्छंदसे न करना, अहंकारसे न करना लोगोंके लिये न करना । जीवको जो कुछ करना है, उसे स्वच्छंदसे न करना चाहिये । - मैं होशियार हूँ ' यह जो मान रखना, वह किस भत्रके लिये ? 'मैं होशियार नहीं', इस तरह जिसने समझ लिया वह मोक्षमें गया है। सबसे मुख्य विघ्न स्वच्छंद है। जिसके दुराग्रहका छेदन. हो गया है, वह लोगोंको भी प्रिय होता है-कदाग्रह छोड़ दिया हो तो दूसरे लोगोंको भी प्रिय होता है। इसलिये कदाग्रहके छोड़ देनेसे सब फल मिलना संभव है।
गौतमस्वामीने महावीरस्वामीसे वेदसंबंधी प्रश्न पूँछे । उन प्रश्नोंका, जिसने सब दोषोंका क्षय कर दिया है ऐसे उन महावीरस्वामीने वेदके दृष्टांत देकर समाधान (सिद्ध) कर बताया।
दूसरेको उच्च गुणोंमें चढ़ाना चाहिये, किन्तु किसीकी निन्दा करनी नहीं। किसीको स्वच्छंदतासे कुछ भी कहना नहीं । कुछ कहने योग्य हो तो अहंकाररहित भावसे ही कहना चाहिये । परमार्थ दृष्टि से यदि राग-द्वेष घट गये हों तो ही फलदायक है, क्योंकि व्यवहारसे तो भोले जीवोंके भी राग-द्वेष घटे हुए रहते हैं; परन्तु परमार्थसे रागद्वेष मंड पड़ गये हों तो वह कल्याणका कारण है।
महान् पुरुषोंकी दृष्टिसे देखनेसे सब दर्शन एकसे हैं। जैन दर्शनमें बीसलाख जीव मतमतांतरमें पड़े हुए हैं। ज्ञानीकी दृष्टिसे भेदाभेद होता नहीं। - जिस जीवको अनंतानुबंधीका उदय है, उसे सच्चे पुरुषकी बात भी रुचिकर होती नहीं, अथवा सच्चे पुरुषकी बात भी सुनना उसे अच्छा लगता नहीं।
मिथ्यात्वकी जो ग्रन्थि है, उसकी सात प्रकृतियाँ हैं । मान आवे तो सातों साथ साथ आती हैं; उसमें अनंतानुबंधीकी चार प्रकृतियाँ चक्रवतीके समान हैं । वे किसी भी तरह प्रन्थिमेंसे निकलने देती नहीं । मिथ्यात्व रखवाला ( रक्षपाल ) है। समस्त जगत् उसकी सेवा चाकरी करता है।
. * दुर्बल देह है, और एक एक मासका उपवास करता है, परन्तु यदि अंतरंगमै माया है, तो भी जीवं अनंत गर्भ धारण करेगा ऐसा दूसरे अंगमें कहा गया है।
+ यहाँ मूलपाठमें केवल इतना ही है- जेटली प्रान्ति वधारे तेटलु वधारे। -अनुवादक. . . . .