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श्रीमद् राजचन्द्र
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सब बात कह दी। महावीरस्वामीने कहा कि 'हे गौतम ! हाँ, आनन्द जैसा समझता है वैसा ही है,
और तुम्हारी भूल है, इसलिये तुम आनन्दके पास जाकर क्षमा माँगो'। गौतमस्वामी 'तथास्तु' कहकर क्षमा माँगनेके लिये चल दिये । यदि गौतमस्वामीने मोह नामक महासुभटको पराभव न किया होता तो वे वहाँ जाते ही नहीं; और कदाचित् ऐसा कहते कि ' महाराज ! आपके जो इतने सब शिष्य हैं, उनकी मैं चाकरी कर सकता है, पर वहाँ तो मैं न जाऊँगा,' तो वह बात स्वीकृत न होती । गौतमस्वामीने स्वयं वहाँ जाकर क्षमा माँगी।
'सास्वादनसमकित' अर्थात् वमन किया हुआ समकित-अर्थात् जो परीक्षा हुई थी, उसपर यदि आवरण आ जाय, तो भी मिथ्यात्व और समकितकी कीमत उसे भिन्न भिन्न मालूम होती है । जैसे छाछमेंसे पहिले मक्खनको निकाल लेनेपर पीछेसे उसे छाछमें डालें, तो मक्खन और छाछ पहिले जैसे एकमेक थे, वैसे एकमेक वे फिर नहीं होते; उसी तरह समकित मिथ्यात्वकी साथ एकमेक होता नहीं । अथवा जिसे हीरामणिकी कीमत हो गई हो उसके सामने यदि बिल्लौरका टुकड़ा आवे तो उसे हीरामणि साक्षात् अनुभवमें आती है-यह दृष्टांत भी यहाँ घटता है।
___ सद्ग, सद्देव और केवलीके प्ररूपित किये हुए धर्मको सम्यक्त्व कहा है, परन्तु सत्देव और केवली ये दोनों सद्गुरुमें गर्भित हो जाते हैं ।
निग्रंथ गुरु अर्थात् पैसे रहित गुरु नहीं, परन्तु जिसका ग्रंथि-भेद हो गया है, ऐसे गुरु । सद्गुरुकी पहिचान होना व्यवहारसे प्रन्थि-भेद होनेका उपाय है । जैसे किसी मनुष्यने बिल्लौरका कोई टुकड़ा लेकर विचार किया ' मेरे पास असली मणि है, ऐसी कहीं भी मिलती नहीं । ' बादमें उसने जब किसी चतुर आदमीके पास जाकर कहा कि 'मेरी मणि असली है, तो उस चतुर आदमीने उससे भी बहुत बढ़िया बढ़िया अधिक अधिक कीमतकी मणिया बताकर कहा कि देख इनमें कुछ फरक मालूम देता है ! बराबर देख । उस मनुष्यने जबाब दिया कि 'हाँ इनमें फरक तो मालूम पड़ता है।' इसके बाद उस चतुर पुरुषने झाड़-फन्नूस बताकर कहा कि 'देख, तेरी जैसी मणियाँ तो हजारों मिलती हैं।' सब झाड़ फन्नूस दिखानेके पश्चात् जब उसे उस पुरुषने असली मणि बताई तो उसे उसकी ठीक ठीक कीमत मालूम पड़ी, और उसने उस मणिको बिलकुल नकली समझकर फेंक दी । बादमें फिर, किसी दूसरे आदमीने मिलनेपर उससे कहा कि तूने जिस मणिको असली समझ रक्खा है, वैसी मणियाँ तो बहुत मिलती हैं । तो इस प्रकारके आवरणसे बहम आ जानेसे जीव भूल जाता है, परन्तु पीछेसे उसे वह झूठा ही समझता है-जिस तरह असलीकी कीमत हुई हो उसी तरहसे समझता है-वह तुरत ही जागृतिमें आता है कि असली बहुत होती नहीं । अर्थात् आवरण तो होता है, परन्तु पहिलेकी जो पहिचान है वह भूली जाती नहीं । इसी. प्रकार विचारवान सद्गुरुका संयोग होनेपर तत्त्व-प्रतीति होती है, परन्तु बादमें मिथ्यात्वीके संगसे आवरण आ जानेसे उसमें शंका हो जाती है । यद्यपि तत्त्वप्रतीति नष्ट नहीं हो जाती किन्तु उसे आवरण आ जाता है । इसका नाम सास्वादनसम्यक्त्व है। .
सद्गुरु और असद्गुरुमें रात दिन जितना अन्तर है।
एक जौहरी था। उसके पास व्यापारमें अधिक नुकसान हो जानेसे कुछ भी द्रव्य बाकी बचा नहीं। जब मरनेका समय नज़दीक आ पहुंचा, तो वह खी बच्चोंका विचार करने लगा कि मेरे