________________
६४३]
उपदेश-छाया
मुझे तो वे ही लकड़ियाँ अच्छी हैं।' आगे चलनेपर चाँदी-सोना आया । उन तीनमेंसे दो जनोंने चन्दनको फेंक दिया, और सोना-चाँदी ले लिया। एकने सोना-चाँदी नहीं लिया । वहाँसे आगे चले कि चिन्तामणि रल आया। इन दोमेंसे एकने सोना फेंककर चिंतामणि रत्न उठा लिया, और एकने सोनेको ही रहने दिया।
१. यहाँ इस तरह दृष्टांत घटाना चाहिये कि जिसने केवल लकड़ियाँ ही ली, और दूसरा कुछ भी न लिया था ऐसा एक तरहका जीव होता है जिसने अलौकिक कार्योंको करते हुए ज्ञानी-पुरुषको पहिचाना नहीं; दर्शन भी किया नहीं । इससे उसका जन्म, जरा, मरण भी दूर हुआ नहीं, गति भी सुधरी नहीं।
२. जिसने चन्दन उठा लिया और लकड़ियोंको फेंक दिया-वहाँ इस तरह दृष्टांत घटाना चाहिये कि जिसने थोड़ा भी ज्ञानीको पहिचाना, उसके दर्शन किये, तो उससे उसकी गति श्रेष्ठ हो गई। .. ३. जिसने सोना आदि ग्रहण किया, वह दृष्टांत इस तरह घटाना चाहिये कि जिसने ज्ञानीको उस प्रकारसे पहिचाना उसे देवगति प्राप्त हुई।
१. जिसने चिंतामणि रत्न लिया, उस दृष्टांतको इस तरह घटाना चाहिये कि जीवको ज्ञानीकी यथार्थ पहिचान हुई कि जीव भवमुक्त हुआ।
कल्पना करो कि एक वन है। उसमें बहुतसे माहात्म्ययुक्त पदार्थ हैं । उनकी जैसे जैसे पहिचान होती है, उतना ही उनका माहात्म्य मालूम देता है, और उसी प्रमाणमें मनुष्य उनको ग्रहण करता है । इसी तरह ज्ञानी-पुरुषरूपी वन है। उस ज्ञानी पुरुषका माहात्म्य अगम अगोचर है। उसकी जितनी जितनी पहिचान होती है, उतना ही उसका माहात्म्य मालूम होता है और उस उस प्रमाणमें जीवका कल्याण होता है।
सांसारिक खेदके कारणोंको देखकर, जीवको कड़वाहट मालूम होनेपर भी वह वैराग्यके ऊपर पाँव रखकर चला जाता है, किन्तु वैराग्यमें प्रवृत्ति करता नहीं।।
लोग ज्ञानीको लोक-दृष्टिसे देखें तो उसे पहिचानते नहीं। ___ आहार आदिमें भी ज्ञानी-पुरुषकी प्रवृत्ति बाह्य रहती है। किस तरह ! जैसे किसी आदमीको पानीमें खड़े रहकर, पानीमें दृष्टि रखकर, बाण साधकर ऊपर टॅगे हुए घड़ेका वेधन करना रहता है । लोग तो समझते हैं कि वेधन करनेवालेकी दृष्टि पानी में है, किन्तु वास्तवमें देखा जाय तो उस आदमीको घड़ेका वेधन करना है, इसलिये उसपर लक्ष करनेके वास्ते, वेधन करनेवालीकी दृष्टि आकाशमें ही रहती है। इसी तरह ज्ञानीको पहिचान किसी विचारवानको ही होती है ।
दृढ़ निश्चय करना कि बाहर जाती हुई वृत्तियोंका क्षय करना चाहिये-अवश्य क्षय करना चाहिये, यही ज्ञानीकी आज्ञा है।
स्पष्टं प्रीतिसे संसार करनेकी इच्छा होती हो तो समझना चाहिये कि ज्ञानी-पुरुषको देखा ही नहीं। जिस तरह प्रथम संसारमें रसरहित आचरण करता हो उस तरह, ज्ञानीका संयोग होनेपर फिर आचरण करे—यही ज्ञानीका स्वरूप है।