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पत्र ५९६, ५९७]
विविध पत्र आदि संग्रह-२९याँ वर्ष
___ संसारका जो अशरण आदि भाव लिखा है वह यथार्थ है। वैसी परिणति अखंड रहे तो ही जीव उत्कृष्ट वैराग्यको पाकर निजस्वरूप-ज्ञानको प्राप्त कर सकता है । कभी कभी किसी निमितसे वैसे परिणाम होते हैं, परन्तु उनको विघ्न करनेवाले संग-प्रसंगमें जीवका निवास होनेसे वह परिणाम अखंड नहीं रहता, और संसारके प्रति अभिरुचि हो जाती है । इससे अखंड परिणतिके इच्छावान मुमुक्षुको उसके लिये नित्य समागमका आश्रय करनेकी परम पुरुषने शिक्षा दी है।
जबतक जीवको वह संयोग प्राप्त न हो तबतक कुछ भी वैसे वैराग्यको आधारके हेतु तथा अप्रतिकूल निमित्तरूप ऐसे मुमुक्षु जनका समागम तथा सत्शास्त्रका परिचय करना चाहिये । दूसरे संगप्रसंगसे दूर रहनेकी बारम्बार स्मृति रखनी चाहिये, और उस स्मृतिको प्रवृत्तिरूप करना चाहियेबारम्बार जीव इस बातको भूल जाता है; और उससे इच्छित साधन तथा परिणामको प्राप्त नहीं करता ।
५९६
बम्बई, द्वितीय ज्येष्ठ वदी ६ गुरु. १९५२
'वर्तमान कालमें इस क्षेत्रसे निर्वाणकी प्राप्ति नहीं होती, ' ऐसा जिनागममें कहा है; और वेदांत आदि दर्शन ऐसा कहते हैं कि ' इस कालमें इस क्षेत्रसे निर्वाणकी प्राप्ति हो सकती है।
'वर्तमान कालमें इस क्षेत्रसे निर्वाणकी प्राप्ति नहीं होती, इसके सिवाय दूसरे भी बहुतसे भावोंका जिनागममें तथा उसके आश्रयसे लिखे गये आचार्योद्वारा रचित शास्त्रोंमें विच्छेद कहा है। केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, पूर्वज्ञान, यथाख्यात चारित्र, सूक्ष्मसांपराय चारित्र, परिहारविशुद्धि चारित्र, क्षायिक समकित और पुलाकलब्धि ये भाव मुख्यरूपसे विच्छेद माने गये हैं।'
वर्तमान कालमें इस क्षेत्रसे आत्मार्थकी कौन कौन मुख्य भूमिका उत्कृष्ट अधिकारीको प्राप्त हो सकती है, और उसके प्राप्त होनेका क्या मार्ग है?' इन प्रश्नोंके परमार्थके प्रति विचारका लक्ष रखना।
५९७ बम्बई, आषाढ़ सुदी २ रवि. १९५२
शान क्रिया और भक्तियोग. मृत्युके साथ जिसकी मित्रता हो, अथवा मृत्युसे भागकर जो छूट सकता हो, अथवा ' मैं नहीं मरूँगा' ऐसा जिसे निश्चय हो, वह भले ही सुखपूर्वक सोवे-(श्रीतीर्थकर -छह जीवनिकाय अध्ययन )।
ज्ञान-मार्ग कठिनतासे आराधन करने योग्य है। परमावगाद-दशा पानेके पहिले उस मार्गसे च्युत होनेके अनेक स्थान हैं।
संदेह, विकल्प, स्वच्छंदता, अतिपरिणामीपना इत्यादि कारण जीवको बारम्बार उस मार्गसे व्युत होनेके हेतु होते हैं, अथवा ये हेतु ऊर्च भूमिका प्राप्त नहीं होने देते।
क्रिया-मार्गमें असद् अभिमान, व्यवहार-आग्रह, सिद्धि-मोह, पूजा सत्कार आदि योग, और दैहिक-क्रियामें आत्मनिष्ठा आदि दोष संभव हैं।
किसी किसी महात्माको छोड़कर बहुतसे विचारवान जीवोंने उन्हीं कारणोंसे भाक्त मार्गका