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पत्र १२५, ६२६] विविध पत्र आदि संग्रह-२९याँ वर्ष
५०३ सर्वज्ञ भूतकालको ' उत्पन्न होकर नष्ट हो जाने ' और भावीकालको, 'आगे अमुक तरह होगा' के रूपमें देखते हैं।
परन्तु भूतकाल द्रव्यमें समा गया है, और भावीकाल सत्तारूपसे सन्निविष्ट है; दोनोंमेंसे एक भी वर्तमानरूपसे नहीं है, मात्र एक समयरूप ही वर्तमानकाल रहता है, इसलिये सर्वज्ञको ज्ञानमें भी उसी प्रकार भासमान होता है। . जैसे किसीने एक घड़ेको अभी देखा हो, उसके बाद वह दूसरे समयमें नाश हो गया है, और उस समय वह घड़ेरूपसे विद्यमान नहीं है, परन्तु देखनेवालेको वह घड़ा जैसा था वैसा ही ज्ञानमें भासमान होता है । इसी तरह इस समय मिट्टीका कोई पिंड पड़ा हुआ है, उसमेंसे थोड़ा समय बीतनेपर एक घड़ा • उत्पन्न होगा, ज्ञानमें ऐसा भी भासमान हो सकता है, फिर भी मिट्टीका पिंड वर्तमानमें कुछ घड़ेरूपसे नहीं रहता । इसी तरह एक समयमें सर्वज्ञको त्रिकाल-ज्ञान होनेपर भी वर्तमान समय तो एक ही है।
सूर्यके कारण जो दिन और रात्रिरूप काल समझा जाता है, वह व्यवहारकाल है, क्योंकि सूर्य स्वाभाविक द्रव्य नहीं है।
दिगम्बर कालके असंख्यात अणु स्वीकार करते हैं, परन्तु उनका एक दूसरेके साथ संबंध है, ऐसा उनका अभिप्राय नहीं है, और इससे उन्होंने कालको अस्तिकायरूपसे स्वीकार नहीं किया।
२. प्रत्यक्ष सत्समागममें भक्ति वैराग्य आदि दृढ़ साधनसहित मुमुक्षुको, सद्गुरुकी आज्ञासे द्रव्यानुयोगका विचार करना चाहिये ।
३. श्रीदेवचन्द्रजीकृत अभिनन्दन भगवान्की स्तुतिका पद लिखकर जो उसका अर्थ पूछवाया है, उसमें—'पुद्रलअनुभव त्यागथी, करवी जशुं परतीत हो'-ऐसा जो लिखा है, वह मूलपद नहीं है । मूलपद इस तरह है- पुद्गलअनुभव त्यागयी, करवी जसु परतीत हो'- अर्थात् वर्ण गंध आदि पुद्गल-गुणके अनुभवका अर्थात् रसका त्याग करनेसे, उसके प्रति उदासीन होनेसे, 'जसु' अर्थात् जिसकी ( आत्माकी ) प्रतीति होती है ।
६२५ विश्व अनादि है । जीव अनादि है।
पुद्गल-परमाणु अनादि हैं । जीव और कर्मका संबंध अनादि है।। .... संयोगीभावमें तादाम्य-अध्यास-होनेसे जीव जन्म-मरण आदि दुःखोंका अनुभव करता है।
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६२६ पाँच अस्तिकायरूप लोक अर्थात् विश्व है । चैतन्य लक्षण जीव है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त परमाणु हैं, वह संबंध स्वरूपसे नहीं, विभावरूपसे है।
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