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पत्र ६२९] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष
५०५ · काल द्रव्य इन पाँच अस्तिकायोंकी वर्तना पर्याय है, अर्थात् वह औपचारिक द्रव्य है । वस्तुतः तो वह पर्याय.ही है । और पल विपलसे लगाकर वर्षादि पर्यंत जो काल सूर्यकी गतिकी ऊपरसे समझा जाता है, वह व्यावहारिक काल है, ऐसा श्वेताम्बर आचार्य कहते हैं । दिगम्बर आचार्य भी ऐसा ही कहते हैं, किन्तु वे इतना विशेष कहते हैं कि लोकाकाशके एक एक प्रदेशमें एक एक कालाणु विद्यमान है, जो अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है, अगुरुलघु स्वभावसे युक्त है। वे कालाण वर्तना पर्याय और व्यावहारिक कालके निमित्तोपकारी हैं । वे कालाणु द्रव्य कहे जाने योग्य हैं, परन्तु अस्तिकाय कहे जाने योग्य नहीं । क्योंकि एक दूसरेसे मिलकर वे अणु, क्रियाकी प्रवृत्ति नहीं करते; जिससे बहुप्रदेशात्मक न होनेसे काल द्रव्यको अस्तिकाय कहना ठीक नहीं; और पंचास्तिकायके विवेचनमें भी उसका गौण स्वरूप कहा है।
आकाश अनंत प्रदेश प्रमाण है । उसमें असंख्यात प्रदेश-प्रमाणमें धर्म अधर्म द्रव्य व्यापक हैं। धर्म अधर्म द्रव्यका यह स्वभाव है कि जीव और पुद्गल उसकी सहायताके निमित्तसे गति और स्थिति कर सकते हैं; जिससे धर्म अधर्म द्रव्यकी व्यापकतातक ही जीव और पुद्गलकी गति-स्थिति है, और उससे लोककी मर्यादा होती है।
जीन, पुद्गल, धर्म, अधर्म और द्रव्यप्रमाण आकाश ये पाँच द्रव्य जहाँ व्यापक है, वह लोक कहा जाता है।
बम्बई, श्रावण १९५२ (१) दुर्लभ मनुष्य देह भी पूर्वमें अनंतबार प्राप्त हुई तो भी कुछ भी सफलता नहीं हुई, परन्तु कृतार्थता तो उसी मनुष्य देहकी है कि जिस मनुष्य देहमें इस जीवने ज्ञानी-पुरुषको पहिचाना और उस महाभाग्यका आश्रय किया। जिस पुरुषके आश्रयसे अनेक मिथ्या प्रकारके आग्रह आदिकी मंदता हुई उस पुरुषके आश्रयसे यह देह छूट जाय, यही सार्थकता है । जन्म, जरा, मरण आदिको नाश करने वाला आत्मज्ञान जिसमें रहता है, उस पुरुषका आश्रय ही जीवको जन्म, जरा, मरण आदिका नाश कर सकता है, क्योंकि वही यथासंभव उपाय है । संयोग संबंधसे इस देहके प्रति इस जीवको जो प्रारब्ध होगा, उसके निवृत्त हो जानेपर उस देहका समागम निवृत्त होगा। तथा उसका कभी न कभी तो वियोग निश्चय है, किन्तु आश्रयपूर्वक देह छूटे, वही जन्म सार्थक है; जिस आश्रयको पाकर जीव उसी भवमें अथवा भविष्यमें थोड़े ही कालमें निजस्वरूपमें स्थिति कर सके। ___ *(२) तुम तथा श्रीमुनि प्रसंगवश......."के यहाँ जाते रहना । ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिको यथाशक्ति धारण करनेकी उन्हें संभावना मालूम हो तो मुनिको वैसा करनेमें प्रतिबंध नहीं ।
(३) श्रीसद्गुरुने कहा है कि ऐसे निम्रन्थ मार्गका सदा ही आश्रय रहे। मैं देह आदि स्वरूप नहीं हूँ, और देह, सी, पुत्र आदि कोई भी मेरा नहीं है; मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी आत्मा हूँ। इस तरह आत्मभावना करते हुए राग-द्वेषका क्षय होना संभव है।