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पत्र ६१८, ६३९]
विविध पत्र मावि संग्रह-२९वौं वर्ष
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भ्रांतिरूपसे आत्माके परभावका कर्ता होनेसे शुभाशुभ कर्मकी उत्पत्ति होती है। कर्मके फलयुक्त होनेसे उस शुभाशुभ कर्मको आत्मा भोगती है। इसलिये उत्कृष्ट शुभसे उत्कृष्ट अशुभतक न्यूनाधिक पर्याय भोगनेरूप क्षेत्र अवश्य है।
निजस्वभाव ज्ञानमें केवल उपयोगसे, तन्मयाकार, सहज-स्वभावसे, निर्विकल्परूपसे जो आत्मा परिणमन करती है, वह ' केवलज्ञान ' है।
तथारूप प्रतीतिभावसे जो परिणमन करे, वह 'सम्यक्त्व' है। निरन्तर वही प्रतीति रहा करे, उसे ' क्षायिक सम्यक्त्व ' कहते हैं ।
कचित् मंद, कचित् तीव्र, कचित् विस्मरण, कचित् स्मरणरूप इस तरह प्रतीति रहे, उसे 'क्षयोपशम सम्यक्त्व ' कहते हैं।
उस प्रतीतिको जबतक सत्तागत आवरण उदय नहीं आया, तबतक उसे ' उपशम सम्यक्त्व' कहते हैं।
आत्माको जब आवरण उदय आवे, तब वह उस प्रतीतिसे गिर पड़ती है, उसे ' सास्वादन सम्यक्त्व ' कहते हैं।
अत्यंत प्रतीति होनेके योग्य जहाँ सत्तागत अल्प पुद्गलका वेदन करना बाकी रहा है, उसे 'वेदक सम्यक्त्व ' कहते हैं।
तथारूप प्रतीति होनेपर अन्य भावसंबंधी अहं-ममत्व आदि, हर्ष, शोक, क्रम क्रमसे क्षय होते हैं । मनरूप योगमें तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है, वह सिद्धि पाता है। और जो स्वरूप-स्थिरताका सेवन करता है, वह स्वभाव-स्थितिको प्राप्त करता है।
निरन्तर स्वरूप-लाभ, स्वरूपाकार उपयोगका परिणमन इत्यादि स्वभाव, अन्तराय कर्मके क्षय होनेपर प्रगट होते हैं।
जो केवल स्वभाव-परिणामी ज्ञान है, वह केवलज्ञान है । ॐ सच्चिदानन्दाय नमः ।
६३९ आनंद, भाद्र. वदी १२ रवि. १९५२ पत्र मिला है । “ मनुष्य आदि प्राणियोंकी वृद्धि " के संबंधमें तुमने जो प्रश्न लिखा था, वह प्रश्न जिस कारणसे लिखा गया था, उस कारणको प्रश्न मिलनेके समय ही सुना था। ऐसे प्रश्नसे विशेष
आत्मार्थ सिद्ध होता नहीं अथवा वृथा कालक्षेप जैसा ही होता है। इस कारण आत्मार्थके प्रति लक्ष होनेके लिये, तुम्ह उस प्रकारके प्रश्नके प्रति अथवा उस तरहके प्रसंगोंके प्रति उदासीन रहना ही योग्य है, यह लिखा था। तथा यहाँ उस तरहके प्रश्नके उत्तर लिखने जैसी प्रायः वर्तमानमें दशा रहती नहीं, ऐसा लिखा था।
अनियमित और अल्प आयुवाली इस देहमें आत्मार्थका लक्ष सबसे प्रथम करना योग्य है।