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पत्र ६४१]
विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष जैनके मतानुसार अनंत द्रव्य आत्मा हैं । प्रत्येक आत्मा भिन्न भिन्न है । ज्ञान दर्शन आद चेतनास्वरूप, नित्य और परिणामी प्रत्येक आत्माको असंख्यात प्रदेशी स्वशरीर-अवगाहवर्ती माना है।
पूर्वमीमांसाके मतानुसार जीव असंख्य हैं, चेतन हैं । उत्तरमीमांसाके मतानुसार एक ही आत्मा सर्वव्यापक सच्चिदानन्दमय त्रिकालाबाध्य है ।
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आनंद, आसोज १९५२
आस्तिक मूल पाँच दर्शन आत्माका निरूपण करते हैं, उनमें जो भेद देखनेमें आता है, उसका क्या समाधान है ?
दिन प्रतिदिन जैनदर्शन क्षीण होता हुआ देखनेमें आता है, और वर्धमानस्वामीके होनेके पश्चात् थोड़े ही वर्षों में उसमें नाना प्रकारके भेद हुए दिखाई देते हैं, उन सबके क्या कारण हैं !
हरिभद्र आदि आचार्योंने नवीन योजनाकी तरह श्रुतज्ञानकी उन्नति की मालूम होती है, परन्तु लोक-समुदायमें जैनमार्गका अधिक प्रचार हुआ दिखाई नहीं देता, अथवा तथारूप अतिशयसंपन्न धर्मप्रवर्तक पुरुषका उस मार्गमें उत्पन्न होना कम ही दिखाई देता है, उसके क्या कारण हैं ?
अब, वर्तमानमें क्या उस मार्गकी उन्नति होना संभव है ! और यदि हो तो किस तरह होना संभव है, अर्थात् उस बातका कहाँसे उत्पन्न होकर, किस रीतिसे, किस रास्तेसे, कैसी स्थितिमें प्रचार होना संभवित जान पड़ता है ! फिर जाने वर्धमानस्वामीके समयके समान, वर्तमान कालके योग आदिके अनुसार वह धर्म प्रगट हो, ऐसा क्या दीर्घ-दृष्टिसे संभव है ! और यदि संभव हो तो किस किस कारणसे संभव है !
जो जैनसूत्र हालमें विद्यमान हैं, उनमें उस दर्शनका स्वरूप बहुत अधूरा लिखा हुआ देखने में आता है, वह विरोध किस तरह दूर हो सकता है !
उस दर्शनकी परंपरामें ऐसा कहा गया है कि वर्तमानकालमें केवलज्ञान नहीं होता, और केवलज्ञानका विषय समस्त कालमें लोकालोकको द्रव्य-गुण-पर्यायसहित जानना माना गया है, क्या वह यथार्थ जान पड़ता है ! अथवा उसके लिये विचार करनेपर क्या कुछ निर्णय हो सकता है ! उसकी व्याख्यामें क्या कुछ फेरफार दिखाई देता है ! और मूल व्याख्याके अनुसार यदि कुछ दूसरा अर्थ होता हो तो उस अर्थके अनुसार वर्तमानमें केवलज्ञान उत्पन्न हो सकता है या नहीं ! और उसका उपदेश दिया जा सकता है अथवा नहीं ! तथा दूसरे ज्ञानोंकी जो व्याख्या कही गई है, क्या वह भी कुछ फेरफारवाली मालूम होती है ! और वह किन कारणोंसे !
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय द्रव्य, मध्यम अवगाही, संकोच-विकासकी भाजन आत्माः महाविदेह आदि क्षेत्रकी व्याख्या-वे कुछ अपूर्व रीतिसे अथवा कही हुई रीतिसे अत्यन्त प्रबल प्रमाणसहित सिद्ध होने योग्य जान पड़ते हैं या नहीं !