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पत्र ६३३]
विविध पत्र आदि संग्रह–२९वाँ वर्ष - उत्तरः-लौकिक और अलौकिक (लोकोत्तर) दृष्टिमें महान् भेद है, अथवा ये दोनों दृष्टियाँ ही परस्पर विरुद्ध स्वभाववाली हैं । लौकिक दृष्टिमें व्यवहार ( सांसारिक कारण ) की मुख्यता है, और अलौकिक दृष्टिमें परमार्थकी मुख्यता है । इसलिये अलौकिक दृष्टिको लौकिक दृष्टिके फलके साथ प्रायः ( बहुत करके ) मिला देना योग्य नहीं।
जैन और दूसरे सभी मामें प्रायः मनुष्य देहका जो विशेष माहात्म्य बताया है, अर्थात् मोक्षके साधनका कारणरूप होनेसे उसे जो चिंतामणिके समान कहा है, वह सत्य है। परन्तु यदि उससे मोक्षका साधन किया हो, तो ही उसका यह माहात्म्य है, नहीं तो वास्तविक दृष्ठिसे पशुके देह जितनी भी उसकी कीमत मालूम नहीं होती।
मनुष्य आदि वंशकी वृद्धि करना, यह विचार मुख्यरूपसे लौकिक दृष्टिका है; परन्तु उस देहको पाकर अवश्य मोक्षका साधन करना, अथवा उस साधनका निश्चय करना, मुख्यरूपसे यही विचार अलौकिक दृष्टिका समझना चाहिये । अलौकिक दृष्टिमें मनुष्य आदि वंशकी वृद्धि करना, यह जो नहीं बताया है, उससे उसमें मनुष्य आदिके नाश करनेका आशय है, ऐसा न समझना चाहिये ।लौकिक दृष्टिमें तो युद्ध आदि अनेक प्रसंगोंमें हजारों मनुष्योंके नाश हो जानेका समय आता है, और उसमें बहुतसे लोग वंशरहित हो जाते हैं; किन्तु परमार्थ अर्थात् अलौकिक दृष्टिमें वैसा कार्य नहीं होता, जिससे प्रायः वैसा होनेका समय आवे । अर्थात् इस जगह अलौकिक दृष्टिसे निरता, अविरोध, मनुष्य आदि प्राणियोंकी रक्षा
और उनके वंशकी मौजूदगी, यह स्वतः ही बन जाता है; और मनुष्य आदि वंशकी वृद्धि करनेका जिसका हेतु है ऐसी लौकिक दृष्टि, उल्टी उस जगह वैर, विरोध, मनुष्य आदि प्राणियोंका नाश और उन्हें वंशरहित करनेवाली ही होती है ।
अलौकिक दृष्टिको पाकर, अथवा अलौकिक दृष्टि के प्रभावसे, कोई भी मनुष्य छोटी अवस्थामें त्यागी हो जाय, तो उससे जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण न किया हो उसके वंशका, अथवा जिसने गृहस्थाश्रम ग्रहण किया हो और पुत्रकी उत्पत्ति न हुई हो उसके वंशका, नाश होनेका समय आना संभव है, और उतने ही मनुष्योंका कम उत्पन्न होना संभव है; जिससे मोक्ष-साधनके हेतुभूत मनुष्य देहकी प्राप्तिके रोकने जैसा हो जाय । किन्तु यह लौकिक दृष्टिसे ही योग्य हो सकता है, परमार्थ दृष्टिसे तो वह प्रायः करके कल्पनामात्र ही लगता है।
कल्पना करो कि किसीने पूर्वमें परमार्थ मार्गका आराधन करके यहाँ मनुष्यभव प्राप्त किया हो, और उसे छोटी अवस्थासे ही त्याग-वैराग्य तीव्रतासे उदयमें आते हों, तो ऐसे मनुष्यको संतानकी उत्पत्ति होनेके पश्चात् त्याग करनेका उपदेश करना, अथवा उसे आश्रमके क्रममें रखना, यह यथार्थ नहीं मालूम देता। क्योंकि मनुष्य देह तो केवल बाह्य दृष्टिसे अथवा अपेक्षारूपसे ही मोक्षकी साधनभूत है, मूलरूपसे तो यथार्थ त्याग-वैराग्य ही मोक्षका साधन समझना चाहिये । और वैसे कारणोंके प्राप्त करनेसे मनुष्य देहकी मोक्षसाधकता सिद्ध नहीं होती, फिर उन कारणोंके प्राप्त होनेपर उस देहसे भोग आदिमें पड़नेकी मान्यता रखना, यह मनुष्य देहको मोक्षके साधनरूप करनेके बराबर कहा जाय, अथवा उसे संसारके साधनरूप करनेके बराबर कहा. जाय, यह विचारणीय है। . .