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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र ६३३ तुमको बाह्य क्रिया आदिके कितने ही कारणोंसे विशेष विधि-निषेधका लक्ष देखकर हमें खेद होता था कि इसमें काल व्यतीत होनेसे आत्मावस्था कितनी स्वरूप स्थितिको सेवन करती है, और वह किस यथार्थ स्वरूपका विचार कर सकती है कि तुम्हें उसका इतना अधिक परिचय खेदका कारण मालूम नहीं होता ! सहजमात्र ही जिसमें उपयोग लगाया हो तो वह किसी तरह ठीक कहा जा सकता है, परन्तु उसमें जो लगभग जागृति-कालका अधिक भाग व्यतीत होने जैसा होता है, वह किस लिये ! और उसका क्या परिणाम है ! वह क्यों तुम्हारे ध्यानमें नहीं आता ! इस विषयमें कचित् कुछ प्रेरणा करनेकी इच्छा हुई है, किन्तु तुम्हारी तथारूप रुचि और स्थिति न देखनेसे प्रेरित करते करते वृत्तिको संकुचित कर लिया है । अभी भी तुम्हारे चित्तमें इस बातको अवकांश देने योग्य अवसर है। लोग अपनेको विचारवान अथवा सम्यग्दृष्टि समझें, केवल उसीसे कल्याण नहीं है, अथवा बाह्य व्यवहारके अनेक विधि-निषेध करनेके माहात्म्यमें भी कुछ कल्याण नहीं है, ऐसा हमें तो लगता है। यह कुछ एकांतिक दृष्टिसे लिखा है अथवा इसमें और कोई हेतु है, इस विचारको छोड़कर जो कुछ उन वचनोंसे अंतर्मुखवृत्ति होनेकी प्रेरणा हो, उसे करनेका विचार रखना ही सुविचार-दृष्टि है।
'लोक-समुदाय कोई भला होनेवाला नहीं है, अथवा स्तुति-निन्दाके प्रयत्नके लिये विचारवानको इस देहकी प्रवृत्ति कर्तव्य नहीं है। बाह्य क्रियाकी अंतर्मुखवृत्तिके बिना विधि-निषेत्रमें कुछ भी वास्तविक कल्याण नहीं है। गच्छ आदिके भेदका निर्वाह करनेमें, नाना प्रकारके विकल्प सिद्ध करनेमें, आत्माको आवरण करनेके बराबर है। अनेकांतिक मार्ग भी सम्यक् एकांत निजपदकी प्राप्ति करानेके सिवाय दूसरे किसी अन्य हेतुसे उपकारक नहीं है, ' ऐसा समझकर जो लिखा है, वह केवल अनुकंपा बुद्धिसे, निराप्रहसे, निष्कपटभावसे, अदंभभावसे, और हितके लिये ही लिखा है-यदि तुम यथार्थ विचार करोगे तो यह दृष्टिगोचर होगा, और वह वचनके ग्रहण अथवा प्रेरणाके होनेका कारण होगा।
६३३ रालज, भाद्रपद सुदी ८,१९५२ . १. प्रश्नः–प्रायः करके सभी मार्गोंमें मनुष्यभवको मोक्षका एक साधन मानकर उसका बहुत बखान किया है, और जीवको जिस तरह वह प्राप्त हो अर्थात् जिससे उसकी वृद्धि हो, उस तरह बहुतसे मार्गोंमें उपदेश किया मालूम होता है। जिनोक्त मार्गमें वैसा उपदेश किया मालूम नहीं होता। वेदोक्त मार्गमें ' अपुत्रकी गति नहीं होती,' इत्यादि कारणोंसे तथा चार आश्रमोंका क्रमपूर्वक विचार करनेसे, जिससे मनुष्यकी वृद्धि हो, वैसा उपदेश किया हुआ दृष्टिगोचर होता है। जिनोक्त मार्गमें उससे उल्टा ही देखा जाता है, अर्थात् वैसा न करते हुए, जब कभी भी जीवको वैराग्य हो. जाय तो संसारका त्याग कर देना चाहिये-ऐसा उपदेश देखनेमें आता है । इससे बहुतसे लोगोंका गृहस्थाश्रमको ग्रहण किये बिना ही त्यागी हो जाना, और उससे मनुष्यकी वृद्धि रुक जाना संभव है, क्योंकि उनके अत्यागसे जो कुछ उनके संतानोत्पत्तिकी संभावना रहती, वह अब न होगी, और उससे वंशके नाश होने जैसा हो जायगा । इससे दुर्लभ मनुष्यभवको जो मोक्षका साधनरूप माना है, उसकी वृद्धि रुक जाती है, इसलिये जिनभगवान्का वैसा आभिप्राय कैसे हो सकता है ... ... ..