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पत्र ६२१, ६२२, ६२३] विविध पत्र आदि संग्रह-२९वाँ वर्ष
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बम्बई, आषाढ़ वदी ८ रवि. १९५२ भुजाके द्वारा जो स्वयंभूरमण समुद्रको तिर गये हैं, तैरते हैं और तैरेंगे,
उन सत्पुरुषोंको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार हो. एक धारासे वेदन करने योग्य प्रारब्धके सहन करते हुए, कुछ एक परमार्थ-व्यवहाररूप प्रवृत्ति कृत्रिम जैसी लगती है, और उन कारणोंसे पहुँचमात्र भी नहीं लिखी। चित्तको जो सहज ही अवलंबन है, उसे खींच लेनेसे आर्तभाव होगा, ऐसा जानकर उस दयाके प्रतिबंधसे इस पत्रको लिखा है ।
सूक्ष्मसंगरूप और बाह्यसंगरूप दुस्तर स्वयंभूरमण समुद्रको जो वर्षमान आदि पुरुष भुजासे तिर गये हैं, उन्हें परमभक्तिसे नमस्कार हो ! च्युत होनेके भयंकर स्थानकमें सावधान रहकर, तथारूप सामर्थ्य विस्तृत करके जिसने सिद्धिको साधा है, उस पुरुषार्थको याद करके रोमांचित, अनंत और मौन ऐसा आश्चर्य उत्पन्न होता है।
६२२ प्रारब्धरूप दुस्तर प्रतिबंध रहता है, उसमें कुछ लिखना अथवा कहना कृत्रिम जैसा ही मालूम होता है, और उससे हालमें पत्र आदिकी पहुँचमात्र भी नहीं लिखी । बहुतसे पत्रोंके लिये वैसा ही हुआ है, इस कारण चित्तको विशेष व्याकुलता होगी, उस विचाररूप दयाके प्रतिबंधसे यह पत्र लिखा है । आत्माको जो मूलज्ञानसे चलायममान कर डाले, ऐसे प्रारब्धका वेदन करते हुए ऐसा प्रतिबंध उस प्रारब्धके उपकारका हेतु होता है; और किसी किसी कठिन अवसरपर कभी तो वह आत्माको मूलज्ञानके वमन करा देनेतककी स्थितिको प्राप्त करा देता है, ऐसा समझकर, उससे डरकर ही आचरण करना योग्य है। यह विचारकर पत्र आदिकी दहुँच नहीं लिखी; उसे क्षमा करनेकी नम्रतासहित प्रार्थना है। ____ अहो ! ज्ञानी-पुरुषका आशय, गंभीरता, धीरज और उपशम । अहो ! अहो ! बारम्बार अहो ! ॐ.
६२३ बम्बई, आषाढ वदी १५ सोम. १९५२ तुम्हें तथा दूसरे किसी सत्समागमकी निष्ठावाले भाईयोंको हमारे समागमकी अभिलाषा रहा करती है, वह बात जाननेमें है, परन्तु उस विषयके अमुक कारणोंका विचार करते हुए प्रवृत्ति नहीं होती । प्रायः चित्तमें ऐसा रहा करता है कि हालमें अधिक समागम भी कर सकने योग्य दशा नहीं है। प्रथमसे ही इस प्रकारका विचार रहा करता था, और जो विचार अधिक श्रेयस्कर लगता था । किन्तु उदयवशसे बहुतसे भाईयोंको समागम होनेका प्रसंग हुआ; जिसे एक प्रकारसे प्रतिबंध होने जैसा समझा था, और हालमें कुछ भी वैसा हुआ मालूम होता है। वर्तमान आत्म-दशा देखते हुए उतना प्रतिबंध होने देने योग्य सत्ता मुझे संभवित नहीं है। यहाँ प्रसंगसे कुछ कुछ स्पष्ट अर्थ कह देना उचित है।