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श्रीमद् राजचन्द्र
[पत्र १२०
बम्बई, आषाद सुदी ५ बुध. १९५२
प्रश्नः- श्रीसहजानंदके वचनामृतमें आत्मस्वरूपके साथ अहर्निश प्रत्यक्ष भगवान्की भक्ति करना, और उस भक्तिको स्वधर्ममें रहकर करना, इस तरह जगह जगह मुख्यरूपसे बात आती है। अब यदि 'स्वधर्म' शब्दका अर्थ 'आत्मस्वभाव ' अथवा 'आत्मस्वरूप' होता हो तो फिर स्वधर्मसहित भक्ति करना, यह कहनेका क्या कारण है ? ' ऐसा जो तुमने लिखा उसका उत्तर यहाँ लिखा है:
उत्तरः-स्वधर्ममें रहकर भक्ति करना, ऐसा जो कहा है, वहाँ स्वधर्म शब्दका अर्थ वर्णाश्रमधर्म है। जिस ब्राह्मण आदि वर्णमें देह उत्पन्न हुई हो, उस वर्णकी. श्रुति-स्मृतिमें कहे हुए धर्मका आचरण करना, यह वर्णधर्म है; और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमके क्रमसे आचरण करनेकी जो मर्यादा श्रुतिस्मृतिमें कही गई है, उस मर्यादासहित उस उस आश्रममें प्रवृत्ति करना, यह आश्रमधर्म है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं; तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यस्त ये चार आश्रम हैं। ब्राह्मण वर्णमें वर्ण-धर्मका आचरण इस तरह करना चाहिये, ऐसा जो श्रुति-स्मृतिमें कहा हो, उसके अनुसार ब्राह्मण आचरण करे तो वह स्वधर्म कहा जाता है, और यदि उस प्रकार आचरण न करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिके आचरण करने योग्य धर्मका आचरण करे, तो वह परधर्म कहा जाता है । इस प्रकार जिस जिस वर्णमें देह धारण की हो, उस उस वर्णकी श्रुतिस्मृतिमें कहे हुए धर्मके अनुसार प्रवृत्ति करना, यह स्वधर्म कहा जाता है और यदि दूसरे वर्णके धर्मका आचरण किया जाय तो वह परधर्म कहा जाता है।
यही बात आश्रमधर्मके विषयमें भी है। जिन वर्णीको श्रुति-स्मृतिमें ब्रह्मचर्य आदि आश्रमसहित प्रवृत्ति करनेके लिये कहा है, उस वर्णमें प्रथम चौबीस वर्षतक गृहस्थाश्रममें रहना, तत्पश्चात् क्रमसे वानप्रस्थ और सन्यस्त आश्रममें आचरण करना, इस तरह आश्रमका सामान्य क्रम है, उस उस आश्रममें आचरण करनेकी मर्यादाके समयमें यदि कोई दूसरे आश्रमके आचरणको ग्रहण करे तो वह परधर्म कहा जाता है, और यदि उस उस आश्रममें उस उस आश्रमके धर्मोका आचरण करे तो वह स्वधर्म कहा जाता है । इस तरह वेदाश्रित मार्गमें वर्णाश्रमधर्मको स्वधर्म कहा है। उस वर्णाश्रमधर्मको ही स्वधर्भ शब्दसे समझना चाहिये, अर्थात् सहजानंदस्वामीने यहाँ वर्णाश्रमधर्मको ही स्वधर्म शब्दसे कहा है।
. भक्तिप्रधान संप्रदायोंमें प्रायः भगवद्भक्ति करना ही जीवका स्वधर्म है, ऐसा प्रतिपादन किय है; परन्तु यहाँ उस अर्थमें स्वधर्म शब्दको नहीं कहा । क्योंकि भक्तिको स्वधर्ममें रहकर ही करना चाहिये, ऐसा कहा है । इसलिये स्वधर्मको जुदारूपसे ग्रहण किया है, और उसे वर्णाश्रमधर्मके अर्थमें ही ग्रहण किया है । जीवका स्वधर्म भक्ति है, यह बतानेके लिये तो भक्ति शब्दके बदले कचित् ही इन संप्रदायोंमें स्वधर्म शब्दका प्रयोग किया गया है और श्रीसहजानन्दके वचनामृतमें भक्तिके बदले स्वधर्म शब्द संज्ञा-वाचकरूपसे भी प्रयुक्त नहीं किया, हाँ कहीं कहीं श्रीवल्लभाचार्यने तो यह प्रयोग किया है।